टुकड़े बिखरे हैं कांच के लगता यहीं घर हैं,
कुछ तो हुआ है शहर में सदमें में मंजर हैं।
वाकिफ नहीं था दोस्तों मैं प्यार के दस्तूर से,
टूटे हुये सपने हमारे , बिखरे मुक़द्दर हैं।
है कुआँ प्यासा समंदर क्या करें बादल खफा,
यूँ तो सबके हाथ में इक उम्मीद का पथ्थर है।
बंजर धरती तपके इक दिन कुंदन बन जायेगी,
शायद करें समर्पण कल जिन हाथों में खंजर है।
जर्रा-जर्रा डूबकर उभरा दोबारा बह चला,
वक़्त की मौजो में लहराते लाखों समंदर हैं।
मुझे आपके क़दमों की आहट भी नहीं सुनती,
है अंदर खौफ़ आवारा बहुत शोर है डर है।
चारों तरफ मजमां लगा है हम-तुम तमाशाइ ,.
'अनुराग'हलक़ में फंसे हुये अपने ही नश्तर हैं।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिाया'अनुराग'Dt.08042016/CCRAI/OLP/doct.