तुम शिविर ठहरे हमारी कल्पनाओं के,-
मत जगाओ स्वर ख़ुशी में वेदनाओं के।
उम्मींदे छोड़कर बाज़ार में फिर ज़िन्दगी,
खरीदती , बेचती दो हिस्से दुआओं के।
परिंदे अभी आदी नहीं लम्बी उड़ानों के,
इनको भी पर लगेंगे मौसम हवाओं के।
बेखुदी में घर बना हैं ज़मीने दलदली,
काफिर थे मंसूबे तुम्हारी योजनाओं के।
मुसाफिर से दगा करते नहीं गर रास्ते,
मकाम हासिल भी हो जाते निगाहों के।
आदतन जब भी पीछे मुड़कर देखता हूँ,
हैं मेरे साए परेशां गम सदाओं के।
अजनबी शोर में कोई रूह तक पहुंचा,
'अनुराग'खाली घर नहीं अब कल्पनाओं के।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt./07042016/CCRAi/OLp/doct.