लेखकों का स्वाभिमान उस समय तार-तार होकर प्रश्नचिन्हों के कटघरे में खड़ा हो जाता है। जब वे किसी साहित्य अकादमी की सरकारी पत्रिका के सह सम्पादकों/सम्पादकों/सांस्कृतिक अधिकारियों/सचिवों के सार्वजनिक तलवे चाटते, चाटुकारिता करते और तिरस्कृत होते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं। ऐसे लेखन और लेखक होने पर धिक्कार है। क्योंकि वे उपरोक्त सम्पादकीय सदस्यों से इस प्रकार भीख मांगते हैं कि सड़कों पर भीख मांगने वालों को भी पीछे छोड़ देते हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि यदि तलवे ही चाटने हैं तो लेखक क्यों बने हैं?
विडंबना यह है कि अधिकांश विद्वान लेखक पुरुषार्थ होते हुए भी नपुंसकों की भूमिका का सार्वभौमिक प्रदर्शन करते हैं और सच को सच व झूठ को झूठ कहने से कतराते हैं। ऐसे कतिपय विद्वान लेखक अकादमियों के मंचों पर यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि वे अकादमी द्वारा देय अल्प पारितोषिक अर्थात पैसों के लिए नहीं लिखते हैं बल्कि झूठ को नग्न करने हेतु लिखते हैं। अर्थात राष्ट्र को ही नहीं बल्कि स्वयं को भी धोखा देते हैं।
जिस पर प्रश्नों का उठना स्वाभाविक हो जाता है कि यद्यपि वह धन के लिए नहीं लिखते हैं और उन्हें कोई लालच भी नहीं है तो वह सच को सच व झूठ को झूठ न कहते हुए स्वयं एवं राष्ट्र को धोखा क्यों देते हैं? वह आपराधिक प्रवृत्ति का परिचय क्यों देते हैं? वह वास्तविक लेखकों अर्थात उन लेखकों का जिनका शिक्षा एवं शिक्षण संस्थानों से कोई लेना-देना नहीं होता के मौलिक अधिकारों को क्यों खा जाते हैं?
विशेषकर उन्हें जिन्हें विश्वविद्यालयों के विद्वान प्रोफेसरों की भांति वेतन भत्ते नहीं मिलते। अर्थात वे लेखक जो समाचारपत्र विक्रेता के रूप में, बूट पॉलिशकर्ता के रूप में, सशस्त्र बलों के प्रहरी के रूप में, सैनिक के रूप में, बजरी छानने वाले परिश्रमिक के रूप में साहित्य लिखते हैं। जिन्हें धन की अति आवश्यकता होती है और ऐसी विशिष्ट अवस्थाओं में आप तलवे चाटते हुए उनकी आवश्यकताओं का वध क्यों करते हैं?
जबकि लेखकों का तो वीरतापूर्ण इतिहास रहा है और उस सशक्त इतिहास में "जहॉं न पहुॅंचे रवि, वहॉं पहुॅंचे कवि" स्पष्ट लिखा गया है। उपरोक्त इतिहासिक लोकोक्ति अथवा मुहावरे में "जहॉं न पहुॅंचे रवि, वहॉं पहुॅंचे शोधकर्ता या प्रोफेसर" कहीं नहीं लिखा हुआ है। जबकि सरकारी साहित्य अकादमियों में प्रचलित वर्तमान कुप्रथा यह है कि वह मूल लेखकों को तिलांजलि देते हुए उनके स्थान पर विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं एवं उनके प्रोफेसरों का विकास कर रहे हैं। हालॉंकि शोधार्थियों एवं उनके विद्वान प्रोफेसरों के लिए अनेकों अन्य मंच हैं। जबकि सत्यमेव जयते का सर्वविदित सच यह भी है कि उक्त एकत्रित भीड़ का अकादमी सचिव भी तालियॉं बजाकर स्वागत करते हैं और आयोजित कार्यक्रमों को सफल बताते हुए स्थानीय लेखकों का क्रूरतापूर्ण वध करते हैं।
उल्लेखनीय ध्यानार्थ सत्य यह भी है कि सम्पादकों/सांस्कृतिक अधिकारियों/सचिवों द्वारा स्थानीय लेखकों का दुर्भावनापूर्ण तिरस्कार अर्थात क्रूरतापूर्ण वध मात्र अशोभनीय ही नहीं बल्कि संवैधानिक दंडनीय अपराध है।
अतः राष्ट्रहित में भारत की वर्तमान माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी, भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी.वाई. चंद्रचूड़ जी, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी, जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी और माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री एन. कोटिस्वर सिंह जी से मेरा विनम्र आग्रह है कि वह उपरोक्त भ्रष्टाचार की आधारभूत कुरीतियों को जड़ से समाप्त करें और स्थानीय वास्तविक लेखकों को बढ़ावा देकर अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करते हुए राष्ट्र को कृतार्थ करें। सम्माननीयों जय हिंद
प्रतिलिपि सेवा में:- प्रेस कोर कौंसिल नई दिल्ली के राष्ट्रीय महासचिव श्री संजय पटेल जी के ध्यानार्थ एवं उचित कार्रवाई हेतु।
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पीटीशनर इन पर्सन)।
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।
Grievance Status for registration number : PRSEC/E/2023/0044788
Grievance Concerns To
Name Of Complainant
Indu Bhushan Bali
Date of Receipt
23/10/2023
Received By Ministry/Department
President's Secretariat
Grievance Description
कृपया स्थानीय वास्तविक लेखकों को बढ़ावा दें
आलेख
लेखकों का स्वाभिमान उस समय तार तार होकर प्रश्नचिन्हों के कटघरे में खड़ा हो जाता है जब वे किसी साहित्य अकादमी की सरकारी पत्रिका के सह सम्पादकों सम्पादकों सांस्कृतिक अधिकारियों सचिवों के सार्वजनिक तलवे चाटते चाटुकारिता करते और तिरस्कृत होते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं ऐसे लेखन और लेखक होने पर धिक्कार है क्योंकि वे उपरोक्त सम्पादकीय सदस्यों से इस प्रकार भीख मांगते हैं कि सड़कों पर भीख मांगने वालों को भी पीछे छोड़ देते हैं ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि यदि तलवे ही चाटने हैं तो लेखक क्यों बने हैं विडंबना यह है कि अधिकांश विद्वान लेखक पुरुषार्थ होते हुए भी नपुंसकों की भूमिका का सार्वभौमिक प्रदर्शन करते हैं और सच को सच व झूठ को झूठ कहने से कतराते हैं ऐसे कतिपय विद्वान लेखक अकादमियों के मंचों पर यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि वे अकादमी द्वारा देय अल्प पारितोषिक अर्थात पैसों के लिए नहीं लिखते हैं बल्कि झूठ को नग्न करने हेतु लिखते हैं अर्थात राष्ट्र को ही नहीं बल्कि स्वयं को भी धोखा देते हैं जिस पर प्रश्नों का उठना स्वाभाविक हो जाता है कि यद्यपि वह धन के लिए नहीं लिखते हैं और उन्हें कोई लालच भी नहीं है तो वह सच को सच व झूठ को झूठ न कहते हुए स्वयं एवं राष्ट्र को धोखा क्यों देते हैं वह आपराधिक प्रवृत्ति का परिचय क्यों देते हैं वह वास्तविक लेखकों अर्थात उन लेखकों का जिनका शिक्षा एवं शिक्षण संस्थानों से कोई लेना देना नहीं होता के मौलिक अधिकारों को क्यों खा जाते हैं विशेषकर उन्हें जिन्हें विश्वविद्यालयों के विद्वान प्रोफेसरों की भांति वेतन भत्ते नहीं मिलते अर्थात वे लेखक जो समाचारपत्र विक्रेता के रूप में बूट पॉलिशकर्ता के रूप में सशस्त्र बलों के प्रहरी के रूप में सैनिक के रूप में बजरी छानने वाले परिश्रमिक के रूप में साहित्य लिखते हैं जिन्हें धन की अति आवश्यकता होती है और ऐसी विशिष्ट अवस्थाओं में आप तलवे चाटते हुए उनकी आवश्यकताओं का वध क्यों करते हैं जबकि लेखकों का तो वीरतापूर्ण इतिहास रहा है और उस सशक्त इतिहास में जहॉं न पहुॅंचे रवि वहॉं पहुॅंचे कवि स्पष्ट लिखा गया है उपरोक्त इतिहासिक लोकोक्ति अथवा मुहावरे में जहॉं न पहुॅंचे रवि वहॉं पहुॅंचे शोधकर्ता या प्रोफेसर कहीं नहीं लिखा हुआ है जबकि सरकारी साहित्य अकादमियों में प्रचलित वर्तमान कुप्रथा यह है कि वह मूल लेखकों को तिलांजलि देते हुए उनके स्थान पर विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं एवं उनके प्रोफेसरों का विकास कर रहे हैं हालॉंकि शोधार्थियों एवं उनके विद्वान प्रोफेसरों के लिए अनेकों अन्य मंच हैं जबकि सत्यमेव जयते का सर्वविदित सच यह भी है कि उक्त एकत्रित भीड़ का अकादमी सचिव भी तालियॉं बजाकर स्वागत करते हैं और आयोजित कार्यक्रमों को सफल बताते हुए स्थानीय लेखकों का क्रूरतापूर्ण वध करते हैं उल्लेखनीय ध्यानार्थ सत्य यह भी है कि सम्पादकों सांस्कृतिक अधिकारियों सचिवों द्वारा स्थानीय लेखकों का दुर्भावनापूर्ण तिरस्कार अर्थात क्रूरतापूर्ण वध मात्र अशोभनीय ही नहीं बल्कि संवैधानिक दंडनीय अपराध है इसलिए राष्ट्रहित में भारत की वर्तमान माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी और माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री एन कोटिस्वर सिंह जी से मेरा विनम्र आग्रह है कि वह उपरोक्त भ्रष्टाचार की आधारभूत कुरीतियों को जड़ से समाप्त करें और स्थानीय वास्तविक लेखकों को बढ़ावा देकर अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करते हुए राष्ट्र को कृतार्थ करें सम्माननीयों जय हिंद
प्रतिलिपि सेवा में प्रेस कोर कौंसिल नई दिल्ली के राष्ट्रीय महासचिव श्री संजय पटेल जी के ध्यानार्थ एवं उचित कार्रवाई हेतु
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार राष्ट्रीय चिंतक स्वयंसेवक भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी
Current Status
Grievance received
Date of Action
23/10/2023
Officer Concerns To
Forwarded to
President's Secretariat
Officer Name
Organisation name
President's Secretariat
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