मृत्यु का कब, कहॉं और कैसे सामना अर्थात आगमन हो जाए, कोई भी नहीं जानता और न ही आज तक कोई भविष्य की गर्भ को झॉंक सका है? परन्तु मृत्यु अटल सत्य है। जिसे ज्ञान, विज्ञान और प्रज्ञान सब मानते हैं। कहते हैं कि प्रकृति ने प्राणियों को सॉंस तक गिनती के दिए हुए हैं और सॉंसों की गति रुकते ही हमारे प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। ऐसे में एक-एक सॉंस अनमोल है। जिन्हें व्यर्थ गंवाना बुद्धिमत्ता नहीं है। इसलिए हमें अपने एक-एक सॉंस का सदुपयोग करते हुए "सुखमय" जीवनयापन करना चाहिए। तथापि व्यतीत किए गए समय का भविष्य में हमारे मन-मस्तिष्क में कदापि ग्लानि उत्पन्न न हो सके।
चूॅंकि ग्लानि वह बाण है जो हमारे शरीर अथवा मन-मस्तिष्क को अंदर ही अंदर घुन की भॉंति खोखला, अनुत्साहित, अक्षम और शिथिल कर देता है अर्थात ग्लानि वह व्याधि है जिसके अंतर्गत रति, परिश्रम, मनस्ताप, भूख और प्यास इत्यादि समाप्त हो जाती है, शरीर कॉंपने लगता है और लगता है कि मुझे प्रताड़ित किया जा रहा है। जबकि यह सब उसके मन व मस्तिष्क में उपजी भ्रमित मनोवृत्ति का अनुभव मात्र है। इसलिए हमें ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय नागरिकों को ग्लानि अथवा व्यर्थ की आत्मग्लानि से सदैव बचना चाहिए। ताकि हम और हमारा परिवार, बिरादरी, राज्य और देश सुखद वर्तमान एवं उज्ज्वल भविष्य का आनन्ददायक अनुभव कर सकें।
परन्तु कुछ कृतघ्न उपरोक्त ग्लानि से कभी उभर नहीं पाते हैं और अपना जीवन ही नहीं बल्कि अपने परम हितैषियों अर्थात सगे-संबंधियों का जीवन भी नरक बना देते हैं। जिस पर दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यह होती है कि उपरोक्त कृतघ्नों का सहयोग उनके निकटतम परिजनों द्वारा अलोकतांत्रिक दृष्टिकोण से करते पाए जाते हैं और संख्या के आधार पर झूठ और सच को तोला जाता है। जबकि प्रताड़ित व्यक्ति अपने विरुद्ध हुई प्रत्येक आर्थिक, सामाजिक और विभागीय हिंसात्मक प्रताड़ना के समस्त साक्ष्यों को लेकर संवैधानिक गुणों एवं अवगुणों की कसौटी पर माननीय न्यायालय में चुनौती देता है। जिस पर माननीय न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीश अपना निर्णय देते हैं। जो तार्किक ही नहीं बल्कि सर्वमान्य होता है।
उल्लेखनीय यह भी है कि प्रत्येक मामले को प्रतिष्ठा की गरिमा अनुसार माननीय न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। क्योंकि बहुत से मामले घनिष्ठ पारिवारिक होते हैं जिनका समाधान आपस में बैठकर ही किया जाना लाभप्रद एवं गौरवान्वित होता है जिसमें क्षमा प्रार्थी होना या क्षमा करना "बड़प्पन" होता है और बड़प्पन पर आधारित संत कवि रहीम जी द्वारा लिखित उक्त संतोषजनक मुहावरे को आज भी उचित ही माना जाता है जिसमें उन्होंने स्वभाव अनुसार परिवार के छोटे सदस्यों के उत्पातों को, बड़ों द्वारा "क्षमा" करने को "बड़प्पन" दर्शाया है। उन्होंने स्पष्ट दर्शाया है कि ऋषि भृगु जी द्वारा परमपिता परमेश्वर विष्णु जी को लात मारने पर भी परमपिता श्री विष्णु जी उन्हें क्षमा कर देते हैं। चूॅंकि ईश्वरीय बड़प्पन अर्थात परिवर्तनशील प्रकृति बदला नहीं बल्कि सुखमय बदलाव चाहती है। उसी प्रकार हमें भी बदलते सामाजिक परिवेश में भूत की घटी कष्टदायक घटनाओं को वीभत्स स्वप्न समझकर भूल जाना चाहिए और आने वाले उज्ज्वल एवं सुखमय वर्तमान/भविष्य को ईश्वरीय वरदान मानकर मृत्यु से पूर्व शेष बचे जीवन का भरपूर आनंद उठाना चाहिए। सम्माननीयों जय हिन्द
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहिमन हरि घट्यो, जो भृगु मारी लात।।
स्वरचित
डॉ. इंदु भूषण बाली
ज्यौडियॉं (जम्मू)
जम्मू और कश्मीर