इस धरा धाम पर जब से सृष्टि का संचालन हुआ तब से लेकर आज तक *सनातन धर्म* विद्यमान है और *सनातन धर्म* पर *भगवत्कृपा* की अमिट छाप देखने को मिलती है ! *सनातन धर्म को सनातन क्यों माना जाता है और इस पर विशेष भगवत्कृपा क्यों है* इस पर एक विचार प्रस्तुत है :---
श्रीमन्नारायण भगवान का एकत्व अव्याहत है ! वहां अनेकत्त्व की कल्पना सर्वथा अनुपादेय है ! वैसे ही भगवत्संकल्पित तत्तन्नियमभूत धर्म का भी एकत्व अपरिहार्य है ! जैसे भगवान का अनेक होना किसी भी मतान्तरवादी को अभीष्ट नहीं हो सकता उसी प्रकार भगवान के नियमोपनियमों की समष्टि का संग्राहक जो *धर्मापर* नामक तत्व है उसकी भी अनेकता युक्तिसिद्ध नहीं कही जा सकती ! फलत: भगवान एक है और धर्म भी एक ही है ! प्राचीन ग्रंथों में निर्विशेष धर्म शब्द द्वारा उस तत्व को अभिव्यक्त किया गया है :--
*धर्मो विश्वस्य जगत प्रतिष्ठा*
( तैत्तिरीयारण्यक,)
महाभारत में भी कहा गया है
*धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:*
(महाभारत/कर्णपर्व)
सर्वज्ञ *भगवान* चारों युगों की परिस्थिति के ज्ञाता है अतः युगांतर में *विशुद्ध धर्म* के स्थान में *धर्माभासों* का प्राबल्य हो जाएगा ! यह जानकर *धर्म शब्द के साथ सनातन विशेषण का प्रयोग हुआ* जिससे सर्वसाधारण को धर्म का विशुद्घ परिचय हो सके ! इसलिए कहा गया है:--
*सनातनमेनमाहुरुताद्य स्यात्पुनर्णव: !*
*अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयो: !!*
(अथर्ववेद)
*अर्थात :-* मनुष्यों के पालनीय धर्म को सनातन नाम से कहा गया है यद्यपि वह अनादि है , प्राचीनतम है तथापि सर्वकालिक कल्याणक्षम होने के कारण युगानुरूप नए से नया भी है ! जैसे दिन - रात बदलते हैं परंतु सूर्य उसी प्रकार निर्विकार रहता है वैसे ही सृष्टि रचना और संहार भी होते रहते हैं परंतु वह *सनातन धर्म* पूर्ववत् अक्षुण्ण बना रहता है , *क्योंकि सनातन स्वयं भगवान को कहा गया है !* श्रीमद् भागवत गीता में भगवान की स्तुति करते हुए अर्जुन ने उन्हें सनातन नाम से स्मरण किया है :-
*सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे*
( श्रीमद्भागवत गीता)
भगवान ने भी जीव का स्वरूप सनातन बतलाया है
*अचलो$यं सनतन:*
(श्रीमद्भागवत गीता)
इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान भी सनातन है और जीव भी सनातन शब्दवाच्य है ! तदनुसार जीव को ब्रह्म तक पहुंचाने वाले मार्ग का नाम ही *सनातन धर्म है* ! आदिकाल से *सनातन धर्म* को मानने वालों पर *भगवत्कृपा* रही है ! जो *भगवत्कृपा* सनातन धर्म पर देखने को मिलती है वह कहीं अन्य दृष्टव्य नहीं है ! श्रीमन्नारायण अनेक कल्याण गुणों के आधार हैं ! भगवान के इन्हीं गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है ;-;
*वशी वदान्यो गुणावानृजु: शुचि-,*
*र्मृदुर्दयालुर्मधुर: स्थिर: सम: !*
*कृती कृतज्ञस्त्वमसि स्वभावत: ,*
*समस्तकल्याणगुणामृतोदधि: !!*
(आलवन्दारस्तोत्र)
*अर्थात्:-* वे दयालु और वदान्य अर्थात अकारण करुणावरुणालय दानशौण्ड , बहुप्रद और वरदराज भी हैं ! भगवान के उक्त दोनों गुण जीवमात्र पर निर्हेतुक वात्सल्य प्रकट करने पर ही चरितार्थ होते ही ! अत: वे सब पर ही निरंतर *अयाचित कृपा* करते रहते हैं ! *उनकी कृपा* जीव मात्र पर निरंतर बरसती रहती है !