संसार में भगवान को दयासागर कहा जाता है परंतु विचार कीजिए क्या यह उपमा उनके लिए पर्याप्त है ? शायद नहीं ! यह तो उनकी अपार कृपा का किंचित परिचय मात्र है ! समुद्र सीमाबद्ध है परंतु भगवान की दया असीम और अपार है , लेकिन संसार में समुद्र से बड़ी वस्तु प्रत्यक्ष ना होने के कारण लोग उसी की उपमा देकर *भगवत्कृपा* के महत्व को समझाने की चेष्टा करते हैं ! सब जीवों पर भगवान की ऐसी अपार कृपा होते हुए भी उसके रहस्य को न समझने के कारण मनुष्य उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते और अपनी मूर्खता के कारण निरंतर दुखों में निमग्न रहते हैं ! *भगवत्कृपा* का महत्व अपार है उससे जो मनुष्य जितना लाभ उठाना चाहे उतना ही उठा सकता है ! *भगवत्कृपा* को एवं उसके रहस्य को और तत्व को बिना समझे वह कृपा समान भाव से साधारण फल देती है ! उसे जो जितना अधिक समझता है उसे वह उतना ही अधिक फल देती है , और समझ कर उसी के अनुसार क्रिया करने से अत्यधिक फल देती है ! *भगवत्कृपा* का ऐसा प्रभाव है कि उसका रहस्य और तत्त्व जानने वाले से वह स्वयं क्रिया करवा लेती है , अर्थात *जैसे किसी दरिद्री मनुष्य के घर में पारस पड़ा हो पर उसे उसका ज्ञान ना हो ! वह उसे साधारण पत्थर समझ रहा हो ! वह मनुष्य उस से विशेष लाभ नहीं उठा सकता , केवल पत्थर जैसा ही काम ले सकता है !* किंतु ऐसा करते करते यदि अकस्मात उस पारस का स्पर्श लोहे से हो जाए तो वह उसे विशेष लाभ भी दे देता है एवं ऐसा अद्भुत चमत्कार देखकर या किसी दूसरे गुणवान पुरुष के समझाने के बाद वह पारस को ठीक पारस समझ लेता है उस पारस के गुण और प्रभाव का उसे भली-भांति ज्ञान हो जाता है ! तब ऐसा ज्ञान उस मनुष्य से विशेष क्रिया करवाकर उसे पूर्ण फल का भागी बना देता है ! *इसी प्रकार किसी विशेष घटना से या किसी महापुरुष के संग से भगवत्कृपा के रहस्य , तत्व और प्रभाव का मनुष्य को कुछ ज्ञान हो जाता है तब वह ज्ञान उसे स्वयं क्रिया करवाकर उसे पूर्ण फल का भागी बना देता है !* जो मनुष्य इस तरह से कुछ समझ जाता है कि भगवान परम कृपालु तथा सबके हैं उसे तुरंत ही परम शांति मिल जाती है ! भगवान ने स्वयं कहा है :--
*सुहृदं सर्वभूतानाम् ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति*
( गीता / ५/२९)
भगवान कहते हैं :- हे अर्जुन ! मेरा भक्त मुझे संपूर्ण भूत प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थ रहित दयालु और प्रेमी तत्त्वत: जानकर शांति को प्राप्त होता है ! शांति भी क्यों न प्राप्त हो , हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जब किसी साधारण और राजाधिराज या सेठ साहूकार के विषय में हमारा यह विश्वास हो जाता है कि अमुक राजा - सेठ बड़ा दयालु और शक्तिशाली है वह सब पर कृपा करता है एवं मुझसे मिलना चाहता है और प्रेम करना चाहता है तो हमें कितना आनंद होता है ? कितना आश्वासन मिलता है ? कितनी शांति मिलती है ? एवं किस प्रकार उससे मिलकर उसकी कृपा से लाभ उठाने की चेष्टा होती है ! फिर उस सर्वशक्तिमान अनंतकोटिब्रम्हांड के स्वामी भगवान के विषय में जिसको यह विश्वास हो जाए कि भगवान परम कृपालु भगवान हैं , सबके सुहृद हैं , वह मुझसे प्रेम करना चाहते हैं , मुझ पर उनकी अपार कृपा है तो मनुष्य उस कृपा का लाभ उठाने की चेष्टा करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए ! इस प्रकार *भगवत्कृपा* के रहस्य को समझने वाला स्वयं परम दयालु एवं सर्वप्रिय बन जाता है ! उस परम कृपालु , सबके सुहृद , सर्वशक्तिमान परमेश्वर की अपार कृपा हम लोगों पर स्वत: स्वाभाविक है क्षण - क्षण में उसकी कृपा का स्वाभाविक लाभ हमको मिल रहा है ! इसलिए उसकी ओर लक्ष्य करके *भगवत्कृपा* के रहस्य , प्रभाव और तत्व को समझने के लिए हमें तत्पर हो जाना चाहिए ! क्योंकि यह मनुष्य शरीर भगवान की *निर्हेतुकी दया* से ही प्राप्त हुआ है ! इसी में यह जीव भगवान की दया को समझकर उनका परम प्रेम पात्र बन सकता है |