यह संपूर्ण जगत भगवतद्विभूति के द्वारा जीवन धारण कर रहा है ! *भगवत्कृपा* की धारा - प्रपात वर्षा हो रही है ! एक औंधे प्याले के समान मनुष्य का क्षुद्र मन उस *कृपा की* पूर्णता का अनुभव करने में असमर्थ है !
*निसिदिन बरसत है यहां , भगवत्कृपा महान !*
*जान न पाता मूढ़ मन , बन मूरख अज्ञान !!*
*बन मूरख अज्ञान , कृपा को समझ न पाता !*
*फंसि माया परपंच , ईश को दोष लगाता !!*
*कह अर्जुन आचार्य आंख को , खोल देख नादान !*
*निसिदिन बरसत है यहां , भगवत्कृपा महान !!*
(स्वरचित)
योग मार्ग में नवागंतुक साधक जिसे नौ सिखुआ कहा जा सकता है , वह बहुधा *भगवत्कृपा* की प्राप्ति और पुरुषार्थ (साधना) इन दोनों विरोधी भावनाओं का पोषण करते हैं ! उनका तर्क होता है कि यदि *भगवत्कृपा* से ही मनुष्य चरम प्रगति करने में समर्थ हो हो सकता है तो वह पुरुषार्थ क्यों करें ? इसके विपरीत यदि वह अपने पुरुषार्थ से ही सफल होता है तो *भगवत्कृपा* की बात ही क्यों की जाए ? तथापि योग दर्शन के सिद्धांतों को गंभीर दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुषार्थ और *भगवत्कृपा* , भाग्य तथा संकल्प की स्वतंत्रता के समान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ! पुरुषार्थ मनुष्य के अहंभाव की चेतना के आसपास से प्रारंभ होता है और उस अवस्था को लक्ष्य में रखकर अग्रसर होता है जिस अवस्था में पहुंचने पर अंतरात्मा , इंद्रिय , मन और बुद्धि की सीमा में अावद्ध नहीं रहता और इस प्रकार परमात्मा के साथ अभेदभाव का अनुभव करता है दूसरी और मनुष्य के अस्तित्व में ईश्वरीय सत्ता की बढ़ती हुई अभिव्यक्ति *भगवत्कृपा* है
*पुरुषार्थ मानव हृदय में , नहिं भेद रखता है जरा !*
*यह ही अभेदभाव , साधक को बनाता है खरा !!*
*सब कुछ समर्पित करें प्रभु को , पुण्य अथवा पाप ही !*
*पुरुषार्थ आकर्षित करें , भगवत्कृपा को आप ही !!*
(स्वरचित)
वास्तविक पुरुषार्थ मनुष्य के भीतर अभेदभाव को विकसित करता है अवैधभावापन्न व्यक्ति लौकिक जीवन के एकत्व अर्थात ईश्वर के सामने आत्मसमर्पण कर देता है ! साधक के व्यवहारिक जीवन में उसका पुरुषार्थ *भगवत्कृपा* को आकर्षित करता है तथा *भगवत्कृपा* उसके पुरुषार्थ को संपन्न और पूर्ण बनाती है ! अपनी प्रगति के उच्चतर में उसको यह तथ्य ज्ञात हो जाता है कि *भगवत्कृपा* और पुरुषार्थ में कोई भी भेद नहीं है ! ईश्वर वाह्यसत्ता नहीं है वह सारी सृष्टि को परिव्याप्त करने वाली अंतरतम सत्ता है , इसलिए जीवन में अंतःकेंद्र की ओर अग्रसर होने के प्रयत्न में सदा भीतरी खिंचाव के द्वारा सहायता मिलती है ! यह भीतरी खिंचाव और कुछ नहीं बल्कि *भगवत्कृपा* ही है ! जब हमें *भगवत् कृपा* की चाहत होती है तब हम अपनी दृष्टि को अपने भीतर गहराई तक दौड़ाते हैं ! जब हम भगवान को आत्मसमर्पण करते हैं तब हम अपनी ही अंतरतम सत्ता को आत्मसमर्पण करते हैं ! आत्मसमर्पण की प्रक्रिया जब प्रयत्न के द्वारा फलीभूत होने लगती है तब वही पुरुषार्थ कहलाती है , परंतु जब अनायास फलीभूत होने लगती है तब उसे हम *भगवत्कृपा* कहते हैं