वास्तव में *भगवत्कृपा* के दर्शन करने हों तो सनातन धर्म के धर्मग्रंथों में ही होते हैं ! कोई भी धर्मशास्त्र ऐसा नहीं है जिसमें *भगवत्कृपा* की स्पष्ट झलक न दिखाई पड़े ! श्रीमद्भागवत तो भगवान की *महती कृपा* का सुंदर मंदिर है जहां स्थान स्थान पर *भगवतिकृपा* के सुंदर दर्शन प्राप्त होते हैं ! जनहानि , धन हानि में भी *भगवत्कृपा* मानने वाले भक्त ही *भगवत्कृपा* का अनुभव कर सकते हैं ! जब नारद जी की माता जी की अनुपस्थिति हुई तो नारद जी ने इसे विशेष *भगवत्कृपा* माना ! यथा :--
*तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सत: !*
*अनुग्रहं मन्यमान: प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् !!*
(श्रीमद्भा०)
नारद जी स्वयं कहते हैं :- तब उस घटना को भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का अनुग्रह समझकर मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया ! स्वयं भगवान भी अपने श्रीमुख से इसे स्वीकार करते हैं :--
*यस्याहमनुगृह्यामि हरिष्ये तद्धं शनै:*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूं धीरे-धीरे उसका धन हरण कर लेता हूं ! पर श्रीमद्भागवत के ही अनुसार *सहज भगवत्कृपा* प्राप्त प्राणी का दुरंत काल भी बाल बांका नहीं कर सकता ! भक्तों के उद्धार के अलावा दुष्टों के उद्धार में भी *भगवत्कृपा* ही मूल है ! *कालिय उद्धार* में अनुग्रह शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है ! वहीं अपनी माता यशोदा का क्लेश देखकर *कृपा परबश* होकर श्री भगवान स्वयं ही बंध जाते हैं :- *कृपया$$सीत् स्वबन्धने* भगवान की भृत्यवश्यता , कृपाप्रसाद का यह सुख लक्ष्मी , शिव , ब्रह्मादि अथवा ज्ञानियों को भी नहीं प्राप्त है ! यथा:--
*एवं संदर्शिता ह्यंग हरिणा भृत्यवश्यता !*
*स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वर वशे !!*
*नेमं विरिंचो न भवो न श्रीरप्यंगसंश्रया !*
*प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात् !!*
*नायं सुखापो भगवान देहिनां गोपिकासुत: !*
*ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्ति मतामिह !!*
(श्रीमद्भा०)
इसी प्रकार किसी प्राणी को अपनाना , उसका वरण करना भी *भगवत्कृपा* का ही कार्य है :--
*अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्या: पाणिमुच्यत:*
(श्रीमद्भा०)
यहां त्रिलोककृत परमात्मा भी श्रीकृष्ण ही है यह विदर्भ वासियों को ज्ञात नहीं है , अतः वे परमात्मा के अनुग्रह और श्री कृष्ण के पाणिग्रहण की बात कर रहे हैं ! प्रभु के लीलावतार धारण का कारण भी उनकी कृपा , करुणा या अनुग्रह को ही बताया गया है :--
*अनुग्रहाय भूतानां मानुषं देहमास्थित: !*
*भजते तादृशी: क्रीड़ा या: श्रुत्वा तत्परो भवेत् !!*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* जब इस संसार पर *विशेष भगवत्कृपा* होती है तब भगवान जीवो पर *कृपा* करने के लिए ही अपने को मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएं करते हैं जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जाय !