*श्रीमद्भगवद्गीता* के माध्यम से भगवान ने अपने श्री मुख से प्रत्येक अक्षर के साथ *कृपा* को परोसा है ! समझने वाले इससे भगवान की *महती कृपा* समझते हैं और ना समझने वाले एक पुस्तक या ग्रन्थ समझ कर उसको देखते ही नहीं ! ईश्वर क्या है ? उनकी योग शक्ति एवं विभूति क्या है ? यह भगवान ने *आठवें अध्याय* के ५ श्लोकों (२-६ ) अपनी महिमा को बताने का प्रयास किया है ! सातवें श्लोक में उनकी अनुपम अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बताई है ! अर्जुन ने जब योगशक्ति और विभूतियों का विस्तार सहित वर्णन करने के लिए प्रार्थना की तब भगवान ने *कृपा पूर्वक* अपनी ८१ विभूतियों का वर्णन किया ! संभवतः अर्जुन को भ्रम था कि भगवान की विभूतियां इतनी ही हैं अर्थात सीमित है इसलिए उन्होंने *अशेषेण* पद का प्रयोग किया किंतु भगवान ने कृपा पूर्वक यह भी बता दिया कि मैं तो समस्त जगत को अपने एक अंश से ही व्याप्त करके ही स्थित हूं और इसीलिए उन्होंने अपनी मूर्तियों का वर्णन किया ! अर्जुन बड़ी विनम्रता से कहते हैं :--
*सुनि के प्रसार दीनबन्धु दीनानाथ जी के ,*
*पारथ हिये में कौतूहल भयो भारी है !*
*जो है सुनाया दिखलाओ प्रभु वही रूप ,*
*जिसमें समस्त सृष्टि भासती हमारी है !!*
*करि के कृपा की कोर देखो प्रभु मेरी ओर ,*
*करता पुकार भक्त दीन है भिखारी है !*
*"अर्जुन" विराट रूप हमें दिखलाओ नाथ ,*
*दया करो दयासिन्धु प्रार्थना हमारी है !!*
(स्वरचित)
अर्जुन ने कहा कि:- हे नाथ ! यदि आप समझते हैं कि मैं उस रूप को देख पाने में असमर्थ हूं तो उसे अवश्य दिखाइए अर्जुन का यह भाव देखकर भगवान मानो अर्जुन पर न्योछावर हो जाते हैं और प्रसन्न होकर कहते हैं :-
*पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशो$थ सहस्रश:*
*अर्थात:-* हे अर्जुन ! एक रूप तो क्या तुम मेरे सैकड़ों और हजारों रूपों को देखो ! उपर्युक्त संवाद से सिद्ध हो जाता है कि साधक का भगवदाश्रय , दैन्य और अपनी इच्छाओं का भागवदइच्छाओं में विलय कर देने पर ही *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है ! यह भाव भगवान को बहुत प्यारा है ! ऐसे साधक की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान तरसते रहते हैं तथा कभी कोई अवसर मिल जाता है तो अत्यधिक सेवा करते हैं ! विराट रूप दिखाने की स्वीकृति भगवान से मिलने के बाद अर्जुन तुरंत कह पड़े :-
*मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् !*
*यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम !!*
*अर्थात्:-* अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है ! अर्जुन ने भले कह दिया हो कि मेरा मोह - अज्ञान दूर हो गया है परंतु परम कृपालु भगवान तो जानते थे कि अभी वह दूर नहीं हुआ इसीलिए भगवान कहते हैं:--
*मा ते व्यथा मा च विमूढ़भाव:*
अर्जुन ने भगवान का प्रभाव जाना और उसे जानकर ही बोल पड़े कि *मेरा मोह दूर हो गया* ! वास्तव में साधक को भगवान के प्रभाव का थोड़ा सा ध्यान हो जाने पर प्रायः ऐसा ही भान होता है कि हम को संपूर्ण *भगवत्कृपा* मिल गई है परंतु यह क्षणिक *भगवत्कृपा* जीव का कल्याण नहीं कर सकती इसलिए साधक को पूर्ण *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए और वह तभी संभव है जब साधक भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित होगा !