*भगवत्कृपा* सदैव समस्त जड़ चेतन पर बरस रही है ! ईश्वर समदर्शी हैं वह कभी भेदभाव नहीं करते ! सब पर समभाव रखते हैं ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है :- भगवान की शरण में जाना ,शरणागत हो जाना ! भगवान स्वयं कहते हैं :----
*अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् !*
*साधुरेव से मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: !!*
*क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छार्न्ति निगच्छति !*
*कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति !!*
*मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: !*
*स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् !!*
*अर्थात्:-* यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है , क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है ! उसने भली-भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ! वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है ! हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ! हे अर्जुन ! स्त्री , वैश्य , शूद्र तथा पापयोनि- चाण्डालादि जो कोई भी हों , वे भी मेरी शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं !
*कृपापरवश* भगवान अपने भक्त के द्वारा किये गये अपराधों को तो हृदयं में रखते ही नहीं है ! गोस्वामी जी के शब्दों में :---
*मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहीं !*
*उर अपराध न एकउ धरिहीं !!*
(मानस)
*भगवत्कृपा* की इयत्ता नहीं है !वह अनंत और सर्वव्यापी है पापी और अधमों पर तो और अधिक बरसती है , तथा उनके सुथार के निमित्त और कल्याण पथ को प्रशस्त करने के लिए हृदय में शुभ प्रेरणा करती है , तथा उन्हें संतों की संगति प्रदान किया करती है ! इसी शुभ प्रेरणा और सत्संग के कारण भयानक से भयानक पापियों के जीवन मार्ग में आकस्मिक परिवर्तन होता है ! बाल्मीकि जैसे भीषण डाकू पर जब *भगवत्कृपा* की शीतल छाया पड़ी तो उसके परिणाम स्वरुप उनकी नारद जी से भेंट हुई ! यह *भगवत्कृपा* इसलिए है क्योंकि:---
*बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता*
(मानस)
फिर क्या था जब *भगवत्कृपा* हुई तो *संतकृपा* प्राप्त हो गयी और वे (वाल्मीकि जी) *भगवत्कृपा* के आदर्श पात्र बन गये ! आज भी *भगवत्कृपा* के प्रसाद स्वरूप ऐसे कई आकस्मिक परिवर्तन देखे जा सकते हैं ! कोई भी देश या काल नहीं है जहां *भगवत्कृपा* की दृष्टि ना होती हो ! वर्तमान में दुखद प्रतीत होने वाले कार्यों के गर्भ में भी *भगवत्कृपा* निहित रहती है , जिससे वे कालांतर में मधुर फल के रूप में परिणत हो जाते हैं ! अतएव अनुभवी संत और विचारक इसी निर्णय या निश्चय पर पहुंचते हैं भगवान जो कुछ भी करते हैं अच्छा ही करते हैं ! *भगवत्कृपा* का क्षेत्र व्यापक ही नहीं सर्वव्यापक है ! जो प्रत्येक कार्य की तह में *भगवत्कृपा* का ही दर्शन और रसास्वादन करते हैं वही *भगवत्कृपा* की वास्तविक पारखी हैं और उन्हें ही प्रत्येक कार्य सुखद मालूम पड़ता है ! *भगवत्कृपा* के इस व्यापक स्वरूप का दर्शन करने वालों का आत्मबल बहुत ऊंचा होता है और उनके आगे विष भी अमृत बन जाता है तथा आग भी हिम के समान शीतल हो जाती है !