सामान्य जीवन में अनुकंपा , दया , कृपा , करुणा आदि शब्द प्राय: एक ही अर्थ में बोले जाते हैं परंतु भक्ति सिद्धांत की दृष्टि से देखने पर इन शब्दों में भेद है !
*अनुकंपा करुणा दया कृपा आदि सब एक !*
*मूल एक होते हुए प्रकटत भाव अनेक !!*
(स्वरचित)
*अनुकंपा* एक ऐसा भाव है जो किसी स्वामी के हृदय में सेवक की असहायावस्था एवं अत्यंत समर्पण - शीलता का अनुभव कर उसके उपकारार्थ उत्पन्न होता है ! *दया* वह भाव है जो किसी भी विपन्न , दीन - हीन दुखी व्यक्ति के लिए जागृत होता है अतएव यदि हम *करुणा* को इस विषय के अंतर्गत ना लें तो *दया और करुणा* प्राय: सामान दशाओं एवं समान आलम्बनों को पाकर जागृत होते हैं *अनुग्रह और पुष्टि शब्द अवश्य ही कृपा के अधिक निकटवर्ती हैं* अब केवल *कृपा* शब्द रह जाता है ! वह उक्त शब्दों का सजातीय होकर भी भाव दृष्टि से वस्तुत: उनसे पर्याप्त मात्रा में आगे है ! *कृपा विशेषतया भगवत्कृपा* जिसे हम समझने का प्रयास कर रहे हैं , ना तो किसी वातावरण विशेष पर आश्रित हैं और ना किसी विशिष्ट अवलंबन पर ही अनिवार्यता निर्भर है ! वह तो भगवान को ऐश्वर्यवान और प्रभु को प्रभुतासंपन्न तथा विभु को व्यापक बने रहने हेतु बाध्य करने वाली अपनी नैसर्गिक प्रकृतिशक्ति है ! जिसके बाहर भगवान कभी रह ही नहीं सकते !
*भगवान की भागवती शक्ति ,*
*बन चक्रवर्तिनी आती है !*
*प्रियतम प्रभु की प्रिय पटरानी ,*
*जग पर निज कृपा लुटाती है !!*
*वह योगक्षेम का वहन करे ,*
*वह ही सबकी हितकारी है !*
*भगवान अगर हैं पिता रूप ,*
*तो कृपा रूप महतारी है !!*
(स्वरचित)
वह *भागवती कृपा* ही भगवान की चक्रवर्तिनी शक्ति तथा उनकी अपनी परम प्रेयसी पटरानी है ! वहीं अखिल ब्रह्मांड की योगक्षेम व्यवस्थापिका समृद्धि तथा कर्म प्रवाह में पतित एवं सतत जन्म मरण के चक्कर में पड़े हुए संपूर्ण भूतों को अपनी अपनी भुक्ति अथवा मुक्ति के लिए निर्बाध अवसर दें देने वाली त्रिशक्ति स्रोतस्विनी त्रिवेणी है ! इससे जीव मात्र का हित ही हित होता है वह चाहे कर्म प्रवाह की किसी भी स्थिति में क्यों न हो ! जैसे गंगा जी सबका कल्याण ही करती हैं ! यथा :--
*सुरसरि सम सब कर हित होई*
(मानस)
यह *कृपा* ही एक ऐसा परमार्थिक तत्व है जो स्वयं ही अपने धारक अथवा आधार की केंद्रीय शक्ति बन गया है ! *कृपैव प्रभुतां गत:* अर्थात *कृपा* स्वयं ही प्रभु की प्रभुता बनकर समस्त चराचर प्राणिमात्र के लिए लौकिक और पारलौकिक श्रेय बिखेर रही है ! संपूर्ण विश्व उसकी एकरसा ममतामई छाया में पारित उचित एवं समृद्ध हो रहा है --
*कृपा न लुटाते कृपासिन्धु ब्रह्माण्ड पर तो ,*
*सृष्टि के रचयिता सृष्टि रचना नहीं कर पाते !*
*सिन्धु के मंथन से निकला था हलाहल जो ,*
*शम्भु प्रलयंकर कभी हजम नहीं कर पाते !!*
*न ही नर सृष्टि होती न ही जड़ सृष्टि होती ,*
*कृपा के बिना हम संसार में नहीं आते !*
*"अर्जुन" कृपा के सिन्धु करुणकर दीनबन्धु ,*
*करिके कृपा यदि न करुणा लुटाते !!*
(स्वरचित)
पूरे संसार का सार है *भगवत्कृपा* ! बिना *भगवत्कृपा* के सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती ! ब्रह्मा जी से लेकर एक क्षुद्र जीव तक *भगवत्कृपा* से ही गतिमान है ! बिना *भगवत्कृपा* के पत्ता तक नहीं हिल सकता ! *भगवत्कृपा* अनेकों रूप में संसार की हितैषिणी बनकर हित किया करती है ! यह रहस्य वही जान सकता है जिसने अपने जीवन में *भगवत्कृपा* का अनुभव किया हो !