*भगवत्कृपा* चिरकाल से ही सृष्टि के प्राणियों के हित की दृष्टि से क्रियाशील हो रही है , परंतु मनुष्य इतना स्वार्थी है कि वह अपने क्षुद्र अहंकार का आश्रय लेकर जीवन में घटित होने वाली परिस्थितियों का निर्माणकर्ता अपने आपको मान बैठता है ! इसके विपरीत यदि हम स्वयं के कर्ता ना मानते अथवा उस प्रभु को ही कर्ता मानते हैं तो हमें अपने मन के विपरीत एवं अरुचिकर परिस्थितियों का कभी सामना न करना पड़ता ! *भगवत्कृपा का अनुभव कैसे होगा ?* तो इसका सीधा सा उत्तर है कि केवल आस्तिक बुद्धि के आश्रय से ही हम उस नित्य प्राप्त *भगवत्कृपा* का अनुभव करने में समर्थ हो सकते हैं ! तर्क द्वारा कदापि नहीं ! क्योंकि मानुषी बुद्धि की गति ही निर्दिष्ट सीमा से आगे नहीं हो सकती ! *भगवत्कृपा* सब पर बराबर है इसका प्रमाण भी हमारे ग्रंथ देते हैं :--
*ईश्वर: सर्वभूतानाम् हृद्देशे$र्जुन तिष्ठति*
( श्रीमद्भगवद्गीता )
इसके अनुसार भगवान सर्वव्यापक है सबके हृदय में है तो स्पष्ट हो गया कि उनकी कृपा की वर्षा सर्वत्र हो रही है , परंतु अधिकांश लोग विषयासक्ति के कारण *भगवत्कृपा* रूपा वर्षा से भयभीत होकर अपने को देहरूप परिच्छिन्न कारागार में बंद कर लिए हैं ! संसार मे भांति भांति के लोग हैं ! यथा :---
*पाकर के धन धाम कुछ पद ऊँचा स्थान !*
*विद्या के मद में फिरें कर मिथ्या अभिमान !!*
*कर मिथ्या अभिमान लबादा ओढ़े मद का !*
*विद्या अरु धन धाम जगत के झूठे पद का !!*
*मद के कारागार में किया स्वयं को बन्द !*
*दर्शन भगवत्कृपा के नहिं पाते मतिमन्द !!*
(स्वरचित)
लोगों ने धन , धाम , विद्या , पद , प्रतिष्ठा के मिथ्या अभिमान का लबादा ओढ़कर अपने आप को सब ओर से ढंक लिया है इस कारण वे *भगवत्कृपा* रूपी वर्षा के पवित्र स्नान का लाभ प्राप्त करने से सर्वथा वंचित बने रहते हैं ! केवल थोड़े से ही व्यक्ति हैं जो संसार में धधकती हुई त्रितापों की भीषण अग्नि से बचने के इच्छुक हैं ! *भगवत्कृपा* की शरण लेते हैं ! ऐसे पुरुष भगवद्वाणी में अटूट निष्ठा स्थापित करके *भगवतकृपा* से इसी जीवन में आत्म कल्याण के अधिकारी बन जाते हैं !
*यत्र तत्र सर्वत्र है भगवत्कृपा प्रसार !*
*योग्य बने जो कृपा के हो उसका उद्धार !!*
*विषय वासनाओं से लड़कर , जो जीते संग्राम !*
*निर्मल मन से प्राप्त हो उसे कृपा अविराम !!*
(स्वरचित)
संसार के सभी देशों के पुण्यात्मा पुरुषों , संत महात्माओं एवं भगवद्भक्तों के जीवन चरित्रों में भगवान की *अहैतुकी कृपा* के असंख्य उदाहरण उपलब्ध है ! यदि हम भी तीव्र जिज्ञासा पूर्वक अपने समस्त मलिन वासनाओं पर विजय प्राप्त करके अपने को *भगवत्कृपा* के योग्य अधिकारी बना सके तो आज भी हमारे कल्याण का द्वार खुला है ! वह *अहैतुकी भगवत्कृपा* शक्ति माता के समान हमें अपनी करुणामई गोद में उठाने के लिए ना जाने कब से प्रतीक्षा कर रही है ! आवश्यकता है स्वयं को उस गोद में जाने के योग्य बनाने की , स्वयं को स्वच्छ एवं निर्मल करने की !