*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए जीव की (अविद्या रूपी) हृदयंग्रन्थि का टूटना परम आवश्यक है ! *भगवत्कृपा* की उपादेयता एवं महत्व तभी समझ में आता है जब हम अपने सदग्रंथों का अध्ययन करते हैं ! जब तक हृदय में अविद्यारूपी ग्रंथि है तब तक मनुष्य के हृदय का संशय दूर नहीं हो सकता , जब तक संशय है तब तक *भगवत्कृपा* की प्राप्ति नहीं सकती ! हमारी श्रुति कहती है :--
*भिद्यते हृदयग्रन्थिश्थचिद्यन्ते सर्वसंशया: !*
*क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन दृष्टे परावरे !!*
(मुण्डकोपनिषद)
*अर्थात्:-* परावर परमात्मा का दर्शन कर लेने पर जीव की (अविद्यारूप) हृदयग्रन्थि टूट जाती है उसके सभी संशय नष्ट हो जाते हैं और इस ( दृष्टा ) के कर्म क्षीण हो जाते हैं ! इसी प्रकार उस परमात्मा को बिना जाने आध्यात्मिक अधिदैविक एवं अधिभौतिक इन त्रिविध दुखों का विनाश वैसे ही असंभव है जैसे विभु और अमूर्त आकाश को परिछिन्न और मूर्तस्वरूप चर्म के समान लपेट लिया जाना ! यथा :-
*यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवा: !*
*तदा देवमविशाय दु:खस्यान्तो भविष्यति !!*
(श्वेताश्वतरोपनिषद)
परंतु मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि वह अपने अज्ञानमूलक वासना के कारण सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा की सहज प्राप्ति के पथ से दूर चला (भटक) जाता है ! इस प्रकार लक्ष्यभ्रष्ट होने का मुख्य कारण भोगों में राग है , इसके कारण जीव का आकर्षण संसार और उसके विषयों की ओर विशेष होता है ! परमात्मा की प्राप्ति की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं रहती ! ऐसी स्थिति में अपनी इच्छाशक्ति को , चिंतन को थका देने वाले प्रयत्नों की ओर अथवा तपश्चर्यापूर्ण अनुशासन की ओर मोड़ना कम कष्टसाध्य नहीं होता !अतः मनुष्य के लिए परम प्रभु के प्रति अपने प्रेम की बलि चढ़ाना ही अधिक संगत एवं कल्याणप्रद साधन प्रतीत होता है! जैसा कि भगवान ने स्वयं कहा है :--
*पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया !*
*यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होनेयोग्य है ! अनन्य भक्ति का प्राकट्य हृदय में तब होता है जब *भगवत्कृपा* होती है ! भगवान को प्राप्त करने के लिए सबसे सरल साधन है भगवान के नाम का संकीर्तन करना एवं उनके गुणों का गायन करना ! जहां भगवान का गुणगान होता रहता वहां साक्षात लक्ष्मीनारायण विराजमान होते हैं ! भगवान ने स्वयं नारद जी से यह रहस्य बतलाया था :---
*नाहं बसामि बैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै !*
*मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद !!*
(पद्मपुराण)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं कि :- हे नारद ! मैं ना तो स्वर्ग में रहता हूं , ना बैकुंठ में रहता हूं और ना ही योगियों के हृदय में ही रहता हूं ! मैं तो वहां निवास करता हूं जहां मेरे भक्तों मेरे गुणों का गान किया करते हैं ! मानव मात्र पर यह *विशेष भगवत्कृपा* है कि भगवान का गुणगान करते रहने पर ही भगवान की कृपा प्राप्त होती रहती है , परंतु भगवान का गुणगान करते समय सर्वोच्च स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए पूर्ण आत्मसमर्पण एवं सच्ची भावना के साथ भक्ति की जानी चाहिए ! तभी *भगवत्कृपा* का अनुभव किया जा सकता है !