साधक तोसअपने जीवन में सदैव *भगवत्कृपा* की कामना करता है परंतु साधारण जीव सदैव किसी न किसी की *कृपा* के लिए लालायित रहता है , तथा किसी न किसी की *अकृपा* का विचार करके आशंकित रहता है ! *कृपाओं* की उपलब्धि और *अकृपाओं* के निवारण हेतु राग- द्वेष एवं दीनता -चाटुकारिता पूर्ण तरह तरह की कुचेष्टायें एवं सुचेष्टायें करते-करते मनुष्य की आयु व्यतीत हो जाती है और मनुष्य कोल्हू के बैल बने गोल परिधि में ही चक्कर लगाता रहता है , मंजिल तक नहीं पहुंचता , किसी भी ठिकाने पर नहीं लगता ! *ऐसा क्यों ?? क्योंकि* कोल्हू के बैल के समान ही हम मनुष्यों की आंखों पर भी पट्टी बंधी हुई है उसे खोल कर देखा जास तो सहज ही पता चलेगा कि हमारी इस करुण - भयावह स्थिति का एकमात्र कारण है हमारी चाहों की अनंतता ! एक - एक चाह में शाखाओं - प्रशाखाओं के नित्य नित्य जन्म लेते रहने के कारण चाहों के जंगल खड़े हो जाते हैं ! एक शब्द में हम मात्र चाहपुञ्ज बनकर रह जाते हैं ! यह चाह -;महारानियां अपने चंगुल में फंसे किसी भी बेचारे से क्या-क्या चाकरियां नहीं कराती , क्या-क्या चक-फेरियां नहीं कटाती ! यह मनुष्य की कामना एवं चाह ही है कि वह जीवन में सदैव अधिक ही पाना चाहता है :--
*और धन और जन और नारि और पूत ,*
*और विद्या और रूप और रुचिर जवानी है !*
*और बड़ों पंच प्रधान पद विश्व चाह ,*
*और और मिले तब और ही दीवानी है !*
*और और चाह माहिं ज्ञान भक्ति भूल गयेव ,*
*स्वान सम दौरत ना पावत ठिकानी है !*
*और और करत में मृत्यु और होइ गयेव ,*
*शान अभिमान सब धूल में मिलानी है !!*
(स्वरचित)
यही चाह मनुष्य को भ्रमित किए रहती है परंतु अचाह हो जाना जितना सरल दिखता है उतना है नहीं ! ठीक दिशा में सतत् एवं एकजुटता से किए गए प्रयास ही रंग ला सकते हैं -- गहरा , गाढ़ा साफल्य सूचक ! हां इसके लिए दोहरा मोर्चा लगाना पड़ेगा ! एक और तो हमें अगणित चाहों के जंगल से "जो हमने स्वयं खड़े कर रखे हैं , अपनी मूल चाह को (अन्य सब चाहे जिसके पसारा मात्र है शाखा पत्ते मात्र हैं);खोज निकालना होगा और तब अन्य सब चाहो से नाता तोड़ बस उसी का होकर रह जाना होगा ! हमारी खोज जिस मूल चाहसे हमारा साक्षात्कार कराये गी वह यही होगी कि हम पूर्ण हो , संपूर्ण तृप्त हों ! दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अचाह होना ही हमारी मूल चाह है ! *कृपा अकृपा* के मूल के संबंध में सोच विचार कर हम इस निश्चय पर पहुंचेंगे कि कोई सत्ता है -- परमसत्ता जो सर्वसमर्थ है ! जिसकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता ! *अब यह स्पष्ट हो गया है कि हमें करना क्या है !* ले देकर एक ही काम हमें करना है और सब चाहों के झमेले को छोड़कर मूल चाह की ही ( हाथी के पांव में जिस तरह सबका पाँव समाया रहता है उसी तरह सब चाहो के इसी एक चाह में समाए रहने के कारण सौदा घाटे का किसी स्थिति में नहीं रहेगा) पूर्ति के लिए सजग हो जायँ ! *सामान्य कृपा अकृपा* की चिंता छोड़ कर उस परम सत्ता की *कृपा उपलब्धि* के लिए जुट जायँ ! क्योंकि :--
*नाश है जहान के महान धन शान बान ,*
*नाश यह देह कुल कुटुम जगीर है !*
*नाशवान विद्या बुद्धि वाक्य ज्ञान बहु मान ,*
*नाशवान रमणीय बुद बुद नीर है !!*
*दुख को पसार जहां देखो वहां दुख आहि ,*
*क्रोध मोह काहि करो जीवन अधीर है !*
*जग अभिलाष तजि अविनाशी पद चाहो ,*
*याहि से तृषित रहत कोई फकीर है !!*
(स्वरचित)
सभी कामनाओं का मूल सद्विचारों की एक ही चाह है *भगवत्कृपा* की प्राप्ति ! जिस दिन मनुष्य के मन में यह भाव स्थिर हो जाता है उसी दिन उसका सारा भय दूर हो जाता है और वह निरंतर *भगवत्कृपा* के लिए प्रयास करता हुआ *भगवत्कृपा* का पात्र बन जाता है , अन्यथा इस संसार में कामनाओं का अंत कभी नहीं होता ! जब तक जीवन है तब तक यह कामनाएं पीछा नहीं छोड़ती इन कामनाओं से छुटकारा पाने के लिए अपनी कामना को भगवान की ओर मोड़कर *भगवत्कृपा* का पात्र बनने का प्रयास सबको करना चाहिए !