*भगवत्कृपा* प्राप्ति स्वत:सिद्ध मानकर पुरुषार्थ ना करना एक बड़ी भूल है ! योग शास्त्र के अनुसार मनुष्य के पुरुषार्थ को चार प्रकार के उद्देश्य में अभिव्यक्त किया गया है !
*धर्म:-* (जीवन आचार संबंधी वैशिष्ट्य)
*अर्थ:-* (जीवन में भौतिक वैशिष्ट्य)
*काम:-* ( जीवन में प्रजनन संबंधी वैशिष्ट्य)
*और मोक्ष:-* (जीवन की अनंतता का वैशिष्ट्य)
एक साधक आचरण संबंधी जागरूकता बढ़ाते हुए जीवन यापन करने के लिए सचेष्ट रहता है , और अपने भौतिक साधनों को तथा अपने बंधु बांधव और परिवार के साथ अपने जीवन को सब प्रकार की तृष्णा के उच्छेद की प्राप्ति की ओर लगा देता है ! यह सारी प्रक्रिया पुरुषार्थ क्षेत्र की है !
*भाग्य भरोसे बैठकर मूर्ख निसिदिन सोए !*
*भगवत कृपा की चाह में शीश पकड़ कर रोए !!*
*कर्म बिना नहिं मिलत है धर्म अर्थ और काम !*
*बिन पुरुषार्थ के ना मिले मोक्ष श्री हरि धाम !!*
*भगवत्कृपा की चाह है तो कर ले कुछ कर्म !*
*नहीं तो रीते हाथ से ना कर पाए धर्म !!*
(स्वरचित)
बिना पुरुषार्थ के किसी भी मनुष्य को *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! कोई भी साधक या साधारण मनुष्य *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता ! यदि वह अपनी अहंभावना के द्वारा प्रेरित होकर कार्य करता है ! अंतरात्मा की सहायता के बिना मनुष्य के लिए आध्यात्मिक मुक्ति की अभिलाषा करना भी असंभव होगा ! *भगवत्कृपा* ही उस पुरुषार्थ का रूप धारण करती है जो आत्मानुभूति में लगाता है ! वह प्रत्येक मानव प्राणी के भीतर अंतरतम तथ्य के रूप में स्थित है ! मनुष्य *भगवत्कृपा* के सहारे बैठकर कर्म करने से बचता रहता है जबकि सत्य है कि बिना कर्म किए *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त की जा सकती ! वह कर्म चाहे मन से किया जाय , वचन से किया जाय या शरीर से किया जाय ! कर्म तो करना ही पड़ेगा बिना पुरुषार्थ के *भगवत्कृपा* की संभावना करना ही व्यर्थ है ! गीता में भगवान ने अर्जुन से बार-बार यही कहा है कि :- *हे पार्थ कर्म करो कर्म करो कर्म करो क्योंकि कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है* फल की चाह करना व्यर्थ है ! कर्म जैसा रहेगा उसी के अनुसार फल प्रदान करना ईश्वर का कार्य है इसीलिए कहा गया है:--
*कर्म किए जा फल की चिंता मत कर तू इंसान !*
*जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान !!*
साधक कुछ दिन साधना करके स्वयं को *भगवत्कृपा का पात्र* समझ लेता है और उसके हृदय में अहंभावना का प्राकट्य हो जाता है ! धीरे-धीरे यही अहंभाव उसके पतन का कारण बनता है , और जो *भगवत्कृपा* उसको प्राप्त होती है वह भी लुप्त हो जाती है , क्योंकि उस साधक ने आगे कर्म करना बंद कर दिया ! उसको ऐसा लगा कि हमने जितना पा लिया है इतना ही श्रेष्ठ है ! मनुष्य के लिए कुछ नित्यकर्म बताए गए हैं कुछ नैमित्तिक कर्म बताए गए हैं ! *कहने का अर्थ यह है कि कर्म के बिना मनुष्य एक क्षण भी नहीं रह सकता* परंतु वह कर्म किस दिशा में किया जा रहा है इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है ! पुरुषार्थ किए बिना भाग्य के भरोसे रहकर *भगवत्कृपा* प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले प्राय: संसार में रोते हुए या फिर *भगवतसत्ता* को दोषी मानते हुए दिखाई पड़ते हैं , *जबकि भगवत्कृपा एवं पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के पूरक है एक ही सिक्के के दो पहलू हैं* इनके विषय में जानने के बाद ही *भगवत्कृपा का पात्र* बना जा सकता है !