सनातन धर्म पर कैसी *भगवत्कृपा* है इसका वर्णन पूर्व में अनेक उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया जा चुका है ! सनातन धर्म की ही शाखाओं के रूप में आज अनेकों धर्म संसार में विद्यमान हैं !
*शाखायें सब धर्म हैं , धर्म सनातन मूल !*
*निकल सनातन से सभी , बने विश्व में फूल !!*
(स्वरचित)
आज विभिन्न धर्मों की स्थिति उच्च शिक्षा संस्था के जैसी है , जहां प्रत्येक विषय का प्राध्यापक उस विषय विशेष के निर्धारित समय में वही विषय छात्रों को पढ़ा कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कर लेता है , अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है , एक दूसरे कालांश (पीरियड) में दूसरे विषय का प्राध्यापक दूसरा विषय पढ़ा देता है , किंतु विद्यालय का प्राचार्य सामूहिक उत्तरदायित्व से बना है ! उसके विद्यालय में पढ़ने वाले छात्र प्रति कालांश में पढ़ाए गए विषयों का ज्ञानार्जन करें परीक्षा में उचित अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हो सके ! इसी प्रकार परमात्मा को समझने के लिए अथवा उनके विषय में उचित अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण होने के लिए सभी विषयों (धार्मिक संप्रदायों मान्यताओं) का उचित ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है !
*सब धर्म की बात करें निशिदिन ,*
*पर कर्म की बात सनातन करता !*
*सब मार काट में ही मस्त रहेंं ,*
*पर सत्य कहे कोई नहीं मरता !!*
*कोई एक को पूजे कोई दो को ,*
*बहुवाद की बात सनातन करता !*
*जो जान न पाया सनातन को ,*
*वह ज्ञान बना नित जीता - मरता !!*
(स्वरचित)
मनुष्य को *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए *भगवत्कृपा* के विविध आयामों के विषय में ज्ञान होना परम आवश्यक है ! उसके लिए भी आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों को त्यागकर जिज्ञासु भाव से उसकी जानकारी हेतु सभी विषयों का गंभीरता से मनन अर्थात एकाग्र चिंतन किया जाय ! ऐसा करने से ही उनका स्वरूप प्रत्यक्ष होगा ! तब साधक के चिंतन में , उसके व्यवहार में और उसके चतुर्दिक विद्यमान परिवेश में यह स्पष्ट हो जाएगा कि:- *वे न निराकार है न साकार , न वे किसी धर्म में बंधे हैं न संप्रदाय में* अपितु वे सर्वत्र हैं सर्वव्यापी हैं ! यही बात तो *तुलसीदास जी* कह रहे हैं !:--
*देस काल दिसि विदिसिहुँ माहीं !*
*कहहुँ सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं !!*
*हरि व्यापक सर्वत्र समाना !!*
(मानस)
वे परमात्मा तो क्यों ? क्या ? कैसे ? तथा मैं और तू से भी परे हैं ! उनके लिए ना कोई धार्मिक बंधन है ना तार्किक समर्थन ! वे सर्वत्र हैं , उनकी कृपा भी सर्वत्र है ! यह निश्चित है *उनमें कृपा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं जो वे किसी को दे सके* उनमें लेने की शक्ति नहीं है वह केवल दे सकते हैं , *वह भी मात्र कृपा* किंतु देने के बाद वे अपने ही नियमों से कुछ ऐसे नियमित हैं कि *अपनी कृपा वापस नहीं ले सकते* जैसे सूर्य ने जो उस किरणें बिखेर दी उसे वह वापस नहीं ले सकता ! इसी प्रकार भगवान में वह शक्ति नहीं है कि वह हमें अथवा इस सृष्टि के किसी भी अंश को अपनी कृपा से वंचित रख सकें ! वे सर्वसमर्थ होते हुए भी ऐसा करने में सर्वथा असमर्थ है ! *यह विशेष भगवत कृपा है और यह सर्वसमर्थ की असमर्थता भी है !*