*भगवत्कृपा* पाँच रूपों में विद्ममान है जो हमें *पञ्चदेवों* से प्राप्त होती है ! *पञ्चदेवों* के विषय में हमारे पुराणों में कहां गया है :--
*आदित्यं गणनाथं त देवीं रुद्रं च केशवम् !*
*पञ्चदैवत्यमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् !!*
(मत्स्यपुराण)
*अर्थात:-* सूर्य , गणेश , दुर्गा , शिव और विष्णु यह *पञ्चदेव* कहे गए हैं ! इनकी पूजा सभी कार्यों में करनी चाहिए ! इन्हीं *पञ्चदेवों* के माध्यम से हमको *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है और उसकी विश्लेषण विधि से पाँच ही फल है ! *पहली है करुणा* जो हमें भगवच्छक्ति पराअंबा *जगदंबा की कृपा* कटाक्ष से प्राप्त होती है ! वह अकारण होती है ! ठीक उसी प्रकार जैसे हमारी मां बिना ही किसी कारण के जन्मदान और स्तनपान आदि विविध सत्कर्मों से हम पर सहज ही करुणा करती है :--
*या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता !*
*नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः !!*
(दुर्गा सप्तशती)
हम दिन भर कार्य करते रहते हैं रात में माता काली निद्रा रूप में आकर हमें विश्राम , शांति और सामर्थ्य प्रदान करती हैं ! उनके प्राप्त हो जाने पर ही हम दिन भर कार्य कर सकते हैं ! महाकालीरूप मृत्यु आती है और जीवन भर के अभिमान को खा जाती है हमें चिरनिद्रा , चिर शांति का दान कर देती है ! *इसीलिए किसी के मरने पर हम कहते हैं अमुक व्यक्ति शांत हो गया !* इस प्रकार उस जगदंबा की परम करुणा समझकर हम निरंतर उसके उपकार स्मृति में ही निहाल हो जायं ! फिर जन्मदात्री सरस्वती और पालनकर्त्री लक्ष्मी जी की करुणा का तो क्या कहना ? *जगदंबा की परम कृपा धन्य है* कि वह जीवन मुक्ति का दान कर बिना मरे ही हमारे पापों को खा जाती है ! उसके वक्षस्थल में करुणा ही करुणा है ! *यह भगवत्कृपा का पहला रूप है* पराम्बा जगदंबा की करुणा ! *दूसरा रूप है भगवान शंकर की दया* वह आशुतोष हैं शीघ्र दया करते हैं और भूल में पड़े हुए प्राणियों का भी उद्धार करते हैं ! रावण , भस्मासुर , बाणासुर आदि असुर दैत्यों पर भी दया करके संपूर्ण वैभव प्रदान करते हैं और विष्णु भगवान को सौंप देते हैं जिनके प्रसाद से उनका उद्धार हो जाता है :--
*मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिप्यसि*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
भगवान ने यह आदेश दिया है कि मेरे चित्त में चित्त लगाने वाले मेरे प्रसाद से सब संकटों को पार कर जाते हैं ! *यह विष्णु भगवान का प्रसाद ही भगवत्कृपा का तीसरा रूप है* जिससे सब दुखों का सदा के लिए नाश हो जाता है :--
*प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*भगवत्कृपा* का एक और रूप है जो *अनुग्रह* नाम से विख्यात और सर्वगुह्यतम है ! सबसे अधिक स्मर्तव्य है ! इस *अनुग्रह* का मर्म जिसने समझ लिया हो निहाल हो गया यह अनुग्रह *सूर्यनारायण* पर हुआ :--
*इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
जिसे आजकल वे संपूर्ण विश्व पर बरसा रहे हैं ! निर्लिप्त होकर फल की इच्छा किए बिना सब कर्म करते हुए भी सर्वथा सजग हैं ! *यह अनुग्रह योग है* हम भी सब परिस्थितियों में निर्लिप्त रहकर संपूर्ण कर्म करते हुए भी उनसे अलग रहें , और *भगवत्कृपा* का अनुभव करें ! *अनुग्रह का अर्थ है:-* अनुकूल ग्रहण करना ! किसी भी परिस्थिति को हम प्रतिकूल न समझे प्रत्येक परिस्थिति को प्रभु प्रदत्त समझकर निरंतर *भगवत्कृपा* का ही अनुभव करते रहे ! प्रत्येक परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति पर उनकी *सर्वथा कृपा* है हमारी इच्छा पूरी हो जाय तो *लाख* (क्योंकि भगवदिच्छा से मिली है ) और ना पूरी हो तो *सवा लाख* क्योंकि उसमें हमारी सम्मति ना रहने से केवल शुद्ध भगवदिच्छा (सर्वश्रेष्ठ) है ! हमारी इच्छा पूरी ना हो तो उसमें (हमारी इच्छा) दोष समझकर प्रभु इच्छा की प्रतीक्षा करें ! सर्वथा सर्वत्र अनुकूल ग्रहण करना और प्रतिकूलता की इति कर देना ही *कृपा प्रतीति का उत्कृष्ट लक्षण है* यह प्रतीत उपलब्ध हुई कि हमारे जीवन से विघ्नों का अंत हो जाएगा और विघ्न शब्द ही हमारे लिए कोई अर्थ न रख पाएगा ! हम *विघ्नविनाशक गणपति* के मंगलमय गुण का अनुभव करेंगे !
*महिमा जासु जानि गनराऊ !*
*प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ !!*
( मानस )
फिर हरिनाम ही रह जाएगा जो *भगवत्कृपा* का प्रथम और अंतिम रूप है ! संपूर्ण कृपा का परमार्थ एक ही एक , जहां एकानेपन का कोई भी भेद नहीं ! यह भ्रम एवं भेद जिसके हृदय से निकल जाता है वही *भगवत्कृपा* का पात्र हो जाता है !