*जैसे भगवान अदभुत है वैसे भगवत्कृपा का रहस्य भी बड़ा अद्भुत है !* असीम भगवान की कृपा भी असीम ही है ! उनका न कहीं ओर है न छोर , न आदि है न अंत ! वह अनंतकोटिब्रह्माडनायक , करुणावरूणालय , परमैश्वर्य संपन्न , भगवान की ही लीला का विलास उनका एक नैसर्गिक गुण है ! इस *नैसर्गिकी कृपा* से संपन्न उनका ह्रदय कलश सदा सर्वदा छलकता रहता है , परंतु अनाधिकारी , अजिज्ञासु व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं होता ! *भगवत्कृपा* के अमृत बिंदुओं का रसास्वादन करने के लिए जीव में *कृपा के प्रति सम्मुखता* अपेक्षित होती है ! उस *कृपा का अधिकारी* बनने के लिए तामस , राजस् गुणों का परित्याग तथा सात्त्विक गुणों का ग्रहण जीव के लिए नितांत आवश्यक होता है ! इसके लिए स्वधर्माचरण प्राथमिक निष्ठा है ! भारतीय वैदिक समाज के अनुसार जिस वर्ण में किसी व्यक्ति का जन्म होता है उसके लिए निश्चित किए गए धर्म ही "स्वधर्म" माने गए हैं ! उनका आचरण करने से व्यक्ति को अपने सद्गुणों का अधिष्ठान बनाने में समर्थ होता है ! अधिकारी भक्तों के लिए *चैतन्य महाप्रभु ने* कुछ अन्य गुणों की सत्ता को भी आवश्यक बताया है , जो इस प्रकार है :--
*तृणादपि सुनीचेन् तरोरिव सहिष्णुना !*
*अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: !!*
*अर्थात :-* इस श्लोक में जिन ४ गुणों को बताया गया है वह इस प्रकार हैं :- तृण से भी अधिक नम्रता , वृक्ष के समान द्वन्द्वसहिष्णुता , अमानिता तथा मानदातृत्व का उल्लेख किया गया है ! उनमें अमानिता का अपना वैशिष्ट्य है ! अभिमान साधक को कभी आगे नहीं बढ़ने देता ना वह उसे भगवत प्राप्ति के लिए समर्थ ही होने देता है ! *गोस्वामी तुलसीदास जी* ने संतों के लक्षणों में इसका विशिष्ट उल्लेख किया है :--
*कोमल चित्र दीनन्ह पर दाया !*
*मन बच क्रम मम भगति अमाया !!*
*सबहिं मानप्रद आपु अमानी !*
*भरत प्रान सम मम ते प्रानी !!*
( मानस )
फलत: अमानिता तथा मानदायकता परस्पर संयुक्त रहते हैं ! यह भागवत गुण -- भगवान की ओर साधक को प्रेरित करते हैं यह गुण ! इसीलिए भगवान के सहस्त्र नामों के अंतर्गत इन दोनों के साथ इनसे ही संबंधित तीसरे नाम का उल्लेख किया गया है :---
*अमानी मानदो मान्य:*
(विष्णु सहस्त्रनाम)
इन तीनों में क्रमिक विकास भी लक्षित किया जा सकता है ! *जो व्यक्ति अभिमानशून्य होता है वही दूसरे को मान सम्मान देता है* और तभी वह मान्य होता है ! दूसरों के हाथों मान पाने का अधिकारी होता है ! निष्कर्ष यह है कि :- *भगवत्कृपा* का अधिकारी होने के लिए अमानी होना नितांत आवश्यक है ! जीव के हृदय में आर्त्तभाव के उदित होने की विशेष आवश्यकता है ! *अमानिता और आर्त्तता* दोनों में कार्य - कारण भाव का संबंध भी लक्षित किया जा सकता है ! *जो अमानी होगा तथा अहंकार विहीन होगा वही आर्त्त हो सकेगा* मानी व्यक्ति अपने आपको सर्व समर्थ समझता है वह अपने से बड़ा अधिक शक्तिशाली , ज्ञानी एवं बुद्धिमान किसी को नहीं मानता ! *फलत: वह भगवत्कृपा के अनुभव का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता !* आर्त्त व्यक्ति अपनी एक ही करुण पुकार से भगवान को अपनी ओर खींचने में समर्थ होता है ! यदि *भगवत्कृपा* प्राप्त करनी है तो सबसे पहले अमानी होकर आर्त्त बनना पड़ेगा अन्यथा *भगवत्कृपा* होते हुए भी नहीं हो पायेगी !