विराट रूप का दर्शन करा कर भगवान ने अर्जुन पर *अभूतपूर्व कृपा* की ! *विचार कीजिए* किसी नाटक में भी पात्र अपना असली रूप नहीं बताता ! यदि वास्तविक रूप प्रकट कर दिया जाय तो नाटक की सफलता ही संदिग्ध हो जाय ! इसीलिए भगवान ने अपना विराट रूप अनुग्रह करके *विशिष्ट भगवत्कृपा* के अंतर्गत दोषदृष्टिरहित अनन्य भक्त अर्जुन को ही दिखाया अन्य लोग उसका लाभ नहीं ले पाए ! *श्रीमद्भगवद्गीता* ऐसा ग्रंथ है जो भगवान के मुखारविंद से उद्धृत हुई वाणी से संग्रहित है ! जीवन को आध्यात्मिक बनाने के लिए *श्रीमद्भगवद्गीता* एक सुगम उपाय है ! इस ग्रंथ पर ऐसी *भगवत्कृपा* है कि ज्ञानयोग , कर्मयोग , भक्तियोग सब का विस्तृत वर्णन भगवान ने स्वयं किया है :-
*गीता सुगीता भगवान की है दिव्य वाणी ,*
*करिके कृपा भगवान ने पसारा है !*
*ज्ञान भक्ति कर्ययोग सबका बखान किहेव ,*
*दिव्य ज्ञानगंगा कुरुक्षेत्र में उतारा है !!*
*बनिके भगीरथ पार्थ जग को कियेव सनाथ ,*
*स्वयं के साथ संसार को उद्धारा है !*
*ऐसा ज्ञान जग में न दूजो कहीं देखि परइ ,*
*"अर्जुन" बने दिव्य ज्ञान के आधारा है !!*
(स्वरचित)
इस ग्रंथ पर *विशेष भगवत्कृपा* इसलिए है क्योंकि यह साक्षात भगवान की वाणी है ! इसके अतिरिक्त निर्गुणोपासना , सगुणोपासना , परमात्मा की प्राप्ति , प्रकृति के कार्य , प्रकृति के गुण , गुणातीत लक्षण , आचरण और गुणातीत होने के उपाय का उद्घाटित होना *विशेष भगवत्कृपा* ही है ! मनुष्य गुणों का उल्लंघन करके ब्रह्म में एकीकृत भाव से कैसे मिल सकता है यह भी इस दिव्य ग्रंथ में बताया गया है ! भगवान स्वयं कहते हैं :--
*मां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते !*
*स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते !!*
*अर्थात:-* धर्म का व्यावहारिक शास्त्रीय ग्रंथ होने के कारण गीता में केवल सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया गया है ! *विशेष भगवत्कृपा* होने के कारण इसमें प्रत्येक सिद्धान्त के विवेचन के पश्चात् उस साधन का वर्णन किया गया है ? जिसके अभ्यास से एक साधक सिद्धावस्था को प्राप्त हो सकता है ! जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है ईश्वर से परम प्रीति भक्ति कहलाती है ! प्रिय वस्तु में हमारा मन सहजता से रमता है ! हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है ! *यथा विचार तथा मन* ! यह नियम है ! इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है और परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है ! यह सत्य है कि परमात्मा का अखण्ड चिन्तन एक समान निष्ठा एवं प्रखरता के साथ बिना *भगवत्कृपा* के संभव नहीं होता है ! जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं उसमें यह सार्मथ्य नहीं है कि मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास में स्थिर कर सकें ! साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं ! जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण बनाये रख सकते हैं *वह उपाय है सेवा* ! *तृतीय अध्याय में* यह वर्णन किया जा चुका है कि ईश्वरार्पण की भावना से किए गए सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं ! इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा या भजन ही पर्याप्त नहीं है। गीताचार्य (भगवान) की अपने भक्तों से यह अपेक्षा है कि वे अपने धर्म को केवल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखें ! उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन , कार्य क्षेत्र और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें ! अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवासाधना मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है ! तामस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है ! ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है ! ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती ! उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है ! जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है ! *१५वें अध्याय* को तो *विशिष्ट भगवत्कृपा* ही कहा जा सकता है क्योंकि एक तो भगवान ने अर्जुन के बिना पूछे ही इसे आरंभ किया दूसरे संपूर्ण गीता में एक यही अध्याय है जिसे भगवान ने *गुह्यतम शास्त्र* की संज्ञा दी भगवान ने स्वयं कहा है :--
*इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ !*
*एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत !!*
*अर्थात् :-* हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है ! हे भरतवंशी अर्जुन ! इसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान् (तथा प्राप्त-प्राप्तव्य) और कृतकृत्य हो जाता है ! इस प्रकार *कृपामयी श्रीमद्भगवद्गीता में भगवत्कृपा की दिव्य झाँकी* देखने को मिलती है ! हम *भगवत्कृपा* तो प्राप्त करना चाहते हैं परंतु सनातन धर्म के सद्ग्रंथों का अध्ययन कदापि नहीं करना चाहते इसीलिए हम *भगवत्कृपा* से वंचित रह जाते हैं !