किसी भी वस्तु के संबंध में हमारा मूल्यांकन अत्यंत छिछला और अज्ञानमूलक होता है ! जिसे हम भला - बुरा , शुभ - अशुभ , प्रसन्न - विपन अथवा सहायक - बाधक मानते हैं ! हम सब दयालु विधाता के काम की ही वस्तु है जिसका वे प्रत्येक जीव के चरम कल्याण के लिए उपयोग करते हैं ! भगवान सौभाग्य की ही तरह दुर्भाग्य का भी उपयोग उतनी ही *स्पष्टदर्शिनी कृपा* के साथ करते हैं यदि आवश्यक हो तो जीव को अज्ञानजाल से निकालने के लिए विपत्ति एवं मृत्यु का उपयोग करने में भी नहीं हिचकते !
*भगवत्कृपा को जान आँख जिस दिन खुल जाती !*
*कोई भी रहस्य की परतें नहिं टिक पाती !!*
*भगवत्कृपा से निशिदिन वे आनन्द हैं लेते !*
*श्रीहरि के हाथों में अपना हाथ जो देते !!*
*कह "अर्जुन आचार्य" विपति कोई न आती !*
*भगवत्कृपा को जान आँख जिस दिन खुल जाती !*
(स्वरचित)
जब एक बार हमारी आंखें *भगवत्कृपा* की सतत उपस्थिति एवं हस्तक्षेप के रहस्य की ओर पूर्ण रूप से खुल जाती है तब हम अपने जीवन की परिस्थितियों के संबंध में शिकायत नहीं करते , अपितु उन सब में उन्हीं सर्वप्रेमी के हाथ पकड़ कृतार्थ होते रहते हैं , जो हमें निर्भ्रान्त और अमोघ रूप से अपनी ओर , अपने शाश्वत सामंजस्य तथा आनंद की ओर ले जा रहे हैं ! यही हमारे चरम लक्ष्य की परिपूर्णता है ! यदि हम सचमुच ही तीव्र अभीप्सा की अवस्था में है तो कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं है जो हमारी अभीप्सा की सफलता में सहायता ना करें ! सभी हमारी मदद करेंगे ! अखंड और निरपेक्ष चेतन सत्ता ने सभी वस्तुओं को हमारे चारों और व्यवस्थित किया है और हम अपनी अज्ञान अवस्था में इसे न पहचान कर सर्वप्रथम इनका विरोध भी कर सकते हैं ! कष्ट की शिकायत भी कर सकते हैं और उन्हें बदल देने के लिए जी तोड़ प्रयत्न भी कर सकते हैं , किंतु जब हम अपने और घटना के बीच थोड़ी दूरी रखकर अधिक विचार करते हैं तब स्पष्ट होता है कि हमारी निर्धारित प्रगति के लिए यह नितांत आवश्यक था !
*ज्ञान बिना कुछ सूझै नहिं ,*
*संकल्प - विकल्प समझ नहिं आते !*
*सृष्टि रचयिता करिके कृपा ,*
*संयोग - वियोग अनेक कराते !*
*जीवन दिव्य प्रदान किये पुनि ,*
*अज्ञान का परदा है नाथ हटाते !*
*"अर्जुन" घोर विपत्ति को पल में ,*
*करिके कृपा रघुनाथ हटाते !!*
(स्वरचित)
शुभ संकल्प ही हमारे चारों ओर सब
कुछ रचता है , वह विश्वात्मा ही हमारे जीवन की व्यवस्था और संचालन कर रहा है ना कि अन्य संयोग अथवा आकस्मिक घटनाओं का अज्ञात चक्र ! यह तो *विशेष भगवत्कृपा* है ! अपने आध्यात्मिक जीवन में सदा ही हम अधिकाधिक आश्चर्य और कृतज्ञता के साथ निरीक्षण करते हैं कि कैसे हमें अनुभूतियां मिलती हैं , कैसे हमारी चेतना पर से एक के बाद दूसरा पर्दा हटता जाता है ! हमारी दृष्टि के समक्ष सत्य का क्रमश: उच्चतर स्वरूप प्रकट होता जाता है ! अंधकार का जमा हुआ ढेर बात की बात में ऐसे दूर हो जाता है मानो यह सब जादू के खेल हो !
*दीन्ह चहइं करतार जिन्हइं कछु ,*
*राह बनाइ के देइं कृपाला !*
*जब चारिहुँ ओर दिखइ अंधियारहिं ,*
*घेरे रहइ बहु संकट जाला !!*
*करिके कृपा जगदीश निहारइं ,*
*संकट भागइ होइ उजियाला !*
*"अर्जुन" मरम जानि नहिं पावत ,*
*भगवत्कृपा कै रहस्य विसाला !!*
(स्वरचितत)
यह रहस्यमयी *भगवत्कृपा* ही है कि जो हमें व्यक्तिगत कठोर , श्रम , अनुशासन और प्रार्थना से नहीं प्राप्त हो पाता वह अचानक ही केवल कृपा से प्राप्त हो जाता है ! हमें पता भी नहीं लगता कि है प्रकाशमय संकेत कहां से मिला ! यह निश्चित आवश्यक स्थिति कैसे स्थापित हो गई ! किसी हठी समस्या के लिए कैसे एक नया समाधान सूझ गया ! हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैसे अवरोधी कठिनाई हमारे रास्ते से दूर फेंक दी गई और हमारी दृष्टि के समक्ष एक महिमान्वित दीप्तिमान क्षितिज प्रकट हो गया हो ! यह *भगवत्कृपा* ही है जिसे हम समझ नहीं पाते हैं !