इस सृष्टि का एक भी कण , संपूर्ण काल का एक ही क्षण ऐसा नहीं है जिस पर भगवत कृपा ना हो:--
*सचराचर में व्याप्त है , भगवत्कृपा महान !*
*भगवत्कृपा से शून्य न कोई भी स्थान !!*
(स्वरचित)
कॉल में एक भी क्षण नहीं , देश में एक रज:कण भी नहीं जो *भगवत्कृपा* के अहर्निश कार्य और उसके निरंतर प्रभाव का प्रतीक न हो ! यदि तुम कृपा के साथ सम्बद्ध हो तो तुम्हें वह सर्वत्र दिखाई देगी ! तुम आनंदपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगोगे ! पूर्ण सत्य तथा अनन्त आह्लाद से परिपूर्ण हो उठोगे और भगवत्कार्य में यही सबसे बड़ा सहयोग होगा ! *भगवत्कृपा* अपने मूल स्वरूप , स्वभाव और विधायिका शक्ति में अचिंत्य होते हुए भी मानव चेतना के स्तर पर उपलब्ध है ! जब हम इसे अहैतुकी या *अप्राप्य मनसा सह* की संज्ञा देते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं होता है कि इसका कोई उद्देश्य हेतु नहीं है ! हां इसका हेतु बुद्धि के स्तर पर अधिगम्य नहीं होता ! इसीलिए मानव अपनी सीमा को ही अंत मानकर कृपा को अहैतुकी घोषित करता आ रहा है ! मानव की वर्तमान चेतना के स्तर से अलग होने का अर्थ यह नहीं है कि *भगवत्कृपा* के स्वरूप को हम जान ही नहीं सकते ! "अज्ञात" एक स्थिति होने पर भी अज्ञेय नहीं हो सकता अतः प्राणिमात्र में एक ऐसी स्थिति की संभावना निहित है जो कृपा के माध्यम से भागवत जीवन में प्रतिष्ठा का आधार बनकर कृपालु को कृपापात्र से संयुक्त कर सकती है ! इस दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो अपनी चेतना को आधार बनाकर परा चेतना (परमात्मा) के प्रति जिज्ञासु हुआ है ! इस जिज्ञासा का आधार भी भगवत्प्रदत विशिष्ट मानव रचना ही है ! यह *भगवत्कृपा* के अभिव्यक्ति का ही परिणाम है कि मनुष्य श्रेय और प्रेय चुनाव में आंशिक रूप से ही सही पर स्वतंत्र हो सका ! इस जीवन में भी हम शरीर और प्राण की सारी शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाते ! अधिकतर मन , प्राण और शरीर में किन्हीं एक या दो से तादात्म्य स्थापित कर उनके नियम अन्य पर लादा करते हैं ! वास्तविकता यह है कि :---
*जीवन ये क्यों मिला है , इसको न जान पाते !*
*आचार पद्धति को बिल्कुल न ध्यान लाते !!*
*अवहेलना हैं करते आनन्द - ज्ञान की हम !*
*संकल्प और चिन्तन से दूर भाग जाते !!*
*अज्ञान के ही हाथों हम सौंप अपना जीवन !*
*अनमोल नर का जीवन यूँ ही सदा लुटाते !!*
(स्वरचित)
हम जीवन की वास्तविक रचना के विषय में ना जानते हुए जीवन की आचार पद्धति , ज्ञान और आनंद की अवहेलना करते हुए अपने कर्म , संकल्प और चिंतन को अज्ञान के हाथों सौंप कर प्रयत्न और असफलताओं की साम्राज्य में लुढ़कते रहते हैं ! अपने शुद्ध स्वरूप की ओर दृष्टिपात ना करने से हम जगत के प्रति आश्चर्यचकित होते रहते हैं और *भगवत्कृपा* के रहस्य को न जानकर भ्रमित रहते हैं पर यह असमर्थता का बोध और सीमाओं का ज्ञान ही भागवत उपस्थित का प्रथम प्रमाण है , क्योंकि असमर्थ को समर्थ की और सीमित को असीम की आवश्यकता है ! *महाभारत* के यक्ष प्रश्न की कथा में परम आश्चर्य ही माना गया है कि :---
*नश्वर यह संसार है नश्वर मानव देह !*
*नश्वरता से कर रहा पगले निशिदिन नेह !!*
*मृत्युलोक में मृत्यु का कोई नहीं उपाय !*
*आया है जो जगत में निश्चित एक दिन जाय !!*
*मरना है एक दिन यहाँ जानत हैं सब लोग !*
*छूटत है तब भी नहीं बहु विषयों का भोग !!*
(स्वरचित)
नित्य मर्त्यशील मानव अपने को मर्त्य क्यों नहीं मानता ! इसका दूसरा पक्ष यह है कि अमृत तत्व की कौन सी झलक हमें इतना मुग्ध किए हैं कि हम मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाते ! अनंतता के साथ चेतना के समर्पण संपर्क की अलक्ष्य प्रेरणा ही *भगवत्कृपा* है !