भगवान की करुणा पर , उनके न्याय पर प्रत्येक व्यक्ति को विश्वास रखना चाहिए क्योंकि जहां विश्वास नहीं होता वहां फल नहीं प्राप्त होता ! जिस साधक को अपने बल - पुरुषार्थ पर भरोसा है , जो यह समझता है कि अपने कर्मों के फलस्वरूप में प्राप्त शक्ति के द्वारा साधन करके मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लूंगा उसे *भगवत्कृपा* का अनुभव होता ! नहीं ऐसे ही जो विचार मार्ग में विश्वास रखने वाला साधक विचार के द्वारा ही अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है उसे भी *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं होता ! *भगवतकृपा* का अनुभव उस साधक को होता है जिसको उनकी कृपा पर पूर्ण विश्वास है ! जो प्रत्येक स्थिति में *भगवत्कृपा* की बाट जोहता रहता है , तथा उस साधक को भी *भगवत्कृपा* का अनुभव होता है जो यह मानता है कि मुझे जो कुछ विवेक प्राप्त है वह भगवान का ही प्रसाद है ! भगवान के ऊपर विश्वास किए बिना *भगवत्कृपा* नहीं हो सकती ! क्योंकि:---
*बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु !*
*राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती , भक्ति के बिना श्री राम जी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता ! यदि जीवन में शांति की कामना है तो भगवान के ऊपर विश्वास करना ही पड़ेगा ! यह मानना पड़ेगा कि मन बुद्धि इंद्रियों शरीर एवं अन्य समस्त साधन सामग्री *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त हुई है ! उन्होंने ही *कृपा पूर्वक* इनका सदुपयोग करने के लिए यह सब प्रदान किया है ! भगवान की ही कृपा प्रेरणा से साधन में मेरी प्रवृत्ति तथा प्रगति होती है और होगी ! इस प्रकार जो अपने को *भगवान की कृपा का पात्र* मानता है और उस मान्यता में भी *भगवान की कृपा* को ही कारण समझता है उसे *भगवत्कृपा* का अनुभव अवश्य होता है ! भगवान दया के सागर अपने भक्तों पर दया करना उनका स्वभाव है , परंतु इस दया का लाभ भक्तों को तभी मिल पाता जब उसे भगवान के ऊपर , उनकी दया के ऊपर पूर्ण विश्वास हो ! भगवान अपने नाम के अनुसार क्रियाकलाप करते हैं ! भक्त को यह चाहिए कि अपने कर्मों को करता हुआ उसके फल की चिंता ना करके अपने कर्म एवं भगवान के न्याय पर पूर्ण विश्वास रखें और मन में यही भावना रहे कि :--
*यदि नाथ का नाम दयानिधि है ,*
*तो दया भी करेंगे कभी ना कभी !*
*दुःख हारी हरे दुखिया जन की ,*
*दुःख क्लेश हरेंगे कभी ना कभी !!*
*जिस अंग की शोभा सुहावनि है ,*
*जिस श्यामल रंग में मोहनि है !*
*उस रूप सुधा के सनेहियों के ,*
*दृग प्याले भरेंगे कभी न कभी !!*
इस प्रकार पूर्ण विश्वास जब भगवान के ऊपर हो जाता है तब उस साधक को कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती , और उसे *भगवत्कृपा* के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं ! *भगवत्कृपा भगवान की शरणागति ,भगवान से प्रेम एवं भगवान के ऊपर विश्वास करने से ही प्राप्त हो सकती है* अन्यथा *भगवत्कृपा* होने पर भी *भगवत्कृपा* के दर्शन हो पाना बहुत दुर्लभ है ! भगवान प्रेम के वशीभूत हैं ! प्रेम ही *भगवत्कृपा* को आकर्षित कर सकता है ! यथा :--
*व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो ,*
*विद्या गजेन्द्रस्य का !*
*कुब्जाया: किमु नाम रूपमधिकं ,*
*किं तत्सुदाम्नो धनम् !!*
*वंश: को विदुरस्य यादवपते ,*
*उग्रस्य किं पौरुषं !*
*भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर-,*
*भक्तिप्रियो माधव: !!*
*अर्थात्:-* व्याध में क्या सदाचार था ? ध्रुव की अवस्था ही कितनी थी ? गजराज में ऐसी कौन विद्या थी ? कुब्जा में ऐसा कहां का सौंदर्य था ? सुदामा के पास क्या धन था ? विदुर का कौन सा उच्च कुल था ? अथवा यादवपति उग्रसेन में कहां का पुरुषार्थ था ? यह सब ना होते हुए भी इन पर *भगवत्कृपा* हुई क्योंकि भगवान तो भक्ति के प्रिय हैं वह केवल भक्ति से ही संतुष्ट होते हैं ! गुणों से नहीं !