*भगवत्कृपा* की महिमा का वर्णन करते हुए शास्त्र थकते नहीं हैं ! शास्त्रों में अपवर्ग प्राप्त करने के लिए कर्म , ज्ञान , भक्ति और जितने भी साधन बताए गए हैं वह साध्य को प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र उपाय उपाय नहीं है ! उनके अनुष्ठान से प्रथमत: भगवान का मुखोल्लास ( आराधन ) किया जाता है , जिससे भगवान में कृपा का स्फुरण होता है , उसके प्रभाव से वे साधक को अपना लेते हैं ! भगवत्संबंध हो जाने से वह सरलता से भगवत स्वरूप का अनुभव करने लगता है:--
*यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ्स्वाम्*
(कठोपनिषद)
श्रुति का तात्पर्य है कि जब तक जीव भगवान के सम्मुख होकर *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं करेगा तब तक उसका उद्धार नहीं हो सकता ! भगवत्स्वरूपाधिकृत प्राणी द्वारा शेष जीवन में केवल सुकृतों का अनुष्ठान होता है , दुष्कृत की ओर तो उसकी प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती , साथ ही किए जा रहे कर्मों के प्रति कोई राग ना होने से वह उनके फल का भागी भी नहीं होता ! यथा :---
*"तदधिगमे उत्तरपूर्वार्घरश्लेष विनाशौ तद्व्यपदेशात्"*
( ब्रह्म सूत्र )
*भगवतकृपा* की आवश्यकता ना मानते हुए दूसरे साधनों को स्वतंत्र उपाय मानकर अपवर्ग के लिए जो प्रयत्नशील होते हैं उन्हें यही कहा जा सकता है कि सन्निकट में बह रही भगवती भागीरथी का परित्याग करके भी मृगमरीचिका से अपनी पिपासा शांत करना चाहते हैं ! जिस प्रकार मृगमरीचिका से प्यास नहीं बुझती उसके लिए जल की अपेक्षा होती है भले ही वह कूप , तड़ाग , नदी आदि किसी आश्रय से घड़ा , लोटा , चुल्लू आदि किसी साधन द्वारा प्राप्त किया जाय ! उसी प्रकार अपवर्ग प्राप्ति के लिए एकमात्र *भगवत्कृपा* ही एक उपाय है भले ही वह भगवान विष्णु , राम , कृष्ण , शिव , सूर्य , गणेश एवं भगवती दुर्गा आदि किसी भी आराधना अथवा कर्म , ज्ञान की प्राप्ति आदि किसी भी साधन से प्राप्त की जाय कर्मादि पृथक पृथक साधन है या अंगांगिभावसहित है , आदि विवादों का प्रशमन भी उसी समय हो जाता है जब हम यह समझ लेते हैं कि अपवर्ग प्राप्त के लिए एकमात्र साधन *भगवतकृपा* या *भगवत्परितोष* है भगवत्परितोष के लिए कर्मादि पृथक पृथक तथा मिलकर भी साधन हो सकते हैं !