*भगवत्कृपा* की चर्चा करते हुए प्राय: एक प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि आखिर *भगवत्कृपा* का स्वरूप क्या है ? *भगवत्कृपा* विश्वव्यापी है या एक देशीया है ? अर्थात प्राणिमात्र *भगवत्कृपा* का पात्र है या केवल भगवान के प्रिय भक्त ही ? प्रश्न के अनुसार स्वाभाविक उत्तर भी अविरोध भाव से सम्मुख खड़ा होता है कि जब भगवान विश्वव्यापी और समदर्शी हैं तो उनकी कृपा एक देशीया या व्यक्तिगत कैसे हो सकती है ! स्वयं भगवान की ही परम आह्लादिनी सुधामयी वाणी है :--
*समो$हं सर्वभूतेषु न मे द्वेप्यो$स्ति न प्रिय:*
( श्रीमद्भगवद्गीता )
*अर्थात्:-* समस्त सृष्टि हमारे लिए बराबर है न तो मेरे लिए कोई अप्रिय है और न ही प्रिय ! वही *मानस में* भगवान कहते हैं :---
*अखिल विश्व यह मोर उपाया !*
*सब पर मोहिं बराबर दाया !!*
(मानस)
*अर्थात:-* न तो कोई मेरा प्यारा है और ना ही किसी से मुझे द्वेष है ! यह समस्त विशाल विश्व मेरा ही उत्पन्न किया हुआ है , और प्राणी मात्र पर मेरी दया भी समान ही है ! वास्तव में *अहैतुकी दया का नाम ही कृपा है* भगवान प्राणिमात्र के लिए परम मंगलमय और परम हितेषी हैं ! इसीलिए तो *तुलसीदास जी* ने कहा है कि:--
*राम सदा सेवक रुचि राखी !*
*बेद पुरान साधु सुर साखी !!*
(मानस)
प्रभु अपने सेवक की रूचि रखते हैं और उसके योगक्षेम का भार अपने ऊपर उठा लेते हैं ! यहां तक कि कभी-कभी तो अपने भक्तों को प्रियतम समझते हुए कह देते हैं :--
*हम भक्तन के भगत हमारे*
परंतु योगक्षेम का भार उठा लेना तथा *भक्तों को प्रियतम कह देना केवल भगवान की अपनी कृपा ही है या इसमें और कुछ भी सम्मिलित है ?* इस पर भी विचार करना चाहिए ! यह संपूर्ण भार तो भगवान भक्त बनने के पश्चात ही अपने कंधों पर उठाते हैं यदि इस को ही *भगवत्कृपा* कहें तो इसमें भक्त बनना या संपूर्ण रूप से प्रभु की शरण प्राप्त कर लेना ही *भगवत्कृपा* प्राप्ति का कारण हुआ ! इस प्रकार तो *भगवत्कृपा* केवल भक्तों के लिए ही सुरक्षित हुई अन्य सामान्य जीव तो *भगवत्कृपा* से वञ्चित ही रह गये ! परंतु ऐसा मान लेने से भगवान के उपर्युक्त वाक्य :-
*सब पर मोहिं बराबर दाया*
का खंडन हो जाता है ! अतः कृपा को तो भगवान का सहज स्वभाव या उनका पवित्र नियम ही कह सकते हैं , क्योंकि भगवान तो कल्पवृक्ष के समान है जो उनकी छाया में जाएगा उसके पाप - ताप शांत हो जाएंगे , अर्थात जो अपने को प्रभु शरण में डाल देता है उसके त्रिविध तापों का शमन हो जाता है ! जब तक कोई अनन्य भाव से भगवान का नहीं बन जाता , अनन्य धारणा से प्रभु उपासना में संलग्न नहीं हो जाता सब आश्रयों को छोड़कर सर्वाश्रयदाता केवल भगवान का ही आश्रय नहीं लेता तब तक उसके लिए प्रभु का यह अटल विधान भी लागू नहीं होता ! भगवान तो कहते हैं :--
*अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते !*
*तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित होते हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं उन नित्य एकीभाव से मेरे स्थिति वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूं ! कुल मिलाकर भाव यह निकला कि *भगवत्कृपा* का फल भगवत्पारायण हो जाने पर ही प्राप्त होता है ! प्रथम हमको प्रभु का बन जाना आवश्यक है फिर तो हमारा संपूर्ण भार उठा लेने को भगवान की अटल प्रतिज्ञा है ही !