*भगवत्कृपा* के कार्यों का पता उनके परिणामों से लगता है !संतों एवं भक्तों के चरित्र तथा शास्त्र इसके प्रमाण हैं ! कब ? किसके ऊपर *भगवत्कृपा* होगी ! किस प्रकार की *भगवत्कृपा* हुई है , इसे देखने के लिए , समझने के लिए हमें अपने साहित्यों का अवलोकन करना चाहिए ! यह *भगवत्कृपा* ही है कि:---
*दुर्वासा के कोप से बचायो नाथ अम्बरीष ,*
*भक्त प्रहलाद हित रूप नव संवारा है !*
*कौरव सभा के बीच द्रौपदी ने टेर करी ,*
*देर नहीं कीन्ही स्वयं वस्त्र रूप धारा है !!*
*जल बीच दीन बनिके गज ने पुकार करी ,*
*ग्राह को उधारि नाथ गज को उबारा है !*
*"अर्जुन" अनेक रूप भगवत्कृपा के देखो ,*
*उनकी कृपा का सकल सृष्टि में पसारा है !!*
(स्वरचित)
राजा अम्बरीश की दुर्वासा के श्राप से रक्षा , भक्त प्रहलाद का त्राण , द्रोपदी की शील रक्षा , अजामिल एवं गज का उद्धार आदि इसके उदाहरण हैं !आधुनिक युग में जगद्गुरु श्री शंकराचार्य ,आचार्य श्री रामानुज , संत ज्ञानदेव , संत तुकाराम , भक्तिमती मीराबाई , चैतन्य महाप्रभु , गोस्वामी तुलसीदास जी आदि के जीवन *भगवत्कृपा* के चमत्कार पूर्ण उदाहरणों से भरे पड़े हैं ! नाना कठिनाइयों से होते हुए इन सिद्ध महात्माओं को अल्पकाल में जो असाधारण सफलता मिली उसकी व्याख्या अन्य प्रकार से संभव ही नहीं है ! जैसे प्रकाश की एक किरण क्षण भर में ही कोठरी के संपूर्ण अंधकार को नष्ट कर उसे आलोकित कर देती है वैसे ही *भगवत्कृपा* भी क्षण भर में ही प्रारब्ध कर्मों को नष्ट कर भक्तों के जीवन को ईश्वरीय ज्योति से भरपूर कर देती है ! *भगवत्कृपा* का सबसे बड़ा चमत्कार है मानव प्रकृति में परिवर्तन ! असाधु को तत्क्षण साधु बना देना *विशेष भगवत्कृपा* है ! ईश्वर की यह अभय वाणी है:---
*अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् !*
*साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः !!*
*क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति !*
*कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं :- हे कौन्तेय ! यदि अत्यंत दुष्ट आचरण वाला व्यक्ति भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है तो उसे साधु ही मानना चाहिए क्योंकि उसने (भगवच्छरणापन्न होकर भक्ति करने का ) सम्यक निश्चय कर लिया है ! इस अनन्य भाव युक्त भक्ति के परिणाम स्वरुप ) वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है एवं शाश्वत परम शांति को प्राप्त होता है ! यह निश्चय पूर्वक जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता ! यद्यपि भगवान में रहने वाली शाश्वत स्वत: स्फूर्ति अहैतुकी शक्ति है तथा यह शक्ति अपने को अभिव्यक्त करने या क्रियाशील होने के लिए किसी अन्य उत्तेजक या प्रेरक कारण की अपेक्षा नहीं करती ,तथापि भगवान की सर्वभाव से सर्वात्मना शरणागति , अनन्य भाव से स्मरण एवं भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म भगवदनुग्रहरूप मंदिर के कपाट को खोल देने का अमोघ साधन है ! भगवत्प्रेम की यज्ञाग्नि मे अपने "स्व" की पूर्णाहुति देने से ही भगवदनुग्रह की आप्यायनी वृष्टि होती है और मनुष्य को *भगवत्कृपा* का अनुभव होता है ! भगवान श्री कृष्ण जी ने अनुग्रह की परिभाषा बताते हुए कहा है :- इस नश्वर संसार में जब भी कोई व्यक्ति पूर्ण आत्माहुति देता है ,अपनी आत्मा को भगवत्प्रेम की ज्वाला में मिला देता है तब जो विस्फोट होता है *उसी का नाम अनुग्रह है* ! इस धरती पर होमी गई कोई भी आत्माहुति कभी व्यर्थ नहीं जाती !