*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए मनुष्य को दृष्टिदोष रहित होना चाहिए ! कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन दृष्टिदोष रहित है इसीलिए भगवान उनके बिना पूछे ही *विशेष कृपा* करके उन्हें ध्यान और भक्ति की विशेषता से अवगत कराते हैं और आदेश देते हैं:-
*कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन*
*अर्थात :-* भगवान कहते हैं :- हे अर्जुन ! तुम योगी बनो क्योंकि कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है ! *छठे अध्याय के तीसरे श्लोक में* तो भगवान ने *कृपा करके* यह विलक्षण सत्य उद्घाटित कर दिया कि समस्त जगत में जितने भी रूप हैं वह सब मेरे ही वेश हैं ! यथा :-
*यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति !*
*तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति !!*
*अर्थात्:-* इस आत्माकी एकता के दर्शन का फल कहा जाता है जो सबके आत्मा मुझ वासुदेव को सब जगह अर्थात् सब भूतों में ( व्यापक ) देखता है और ब्रह्मा आदि समस्त प्राणियों को मुझ सर्वात्मा ( परमेश्वर ) में देखता है इस प्रकार आत्माकी एकता को देखनेवाले उस ज्ञानी के लिये मैं ईश्वर कभी अदृश्य नहीं होता अर्थात् कभी मुझ वासुदेव से अदृश्य परोक्ष नहीं होता क्योंकि उसका और मेरा स्वरूप एक ही है ! निःसंदेह अपना आत्मा अपना प्रिय ही होता है और जो सर्वात्मभाव से एकता को देखनेवाला है वह मैं ही हूँ ! *इसी अध्याय में* अर्जुन ने मन संबंधी प्रश्न भी किया ! उन्हें शंका होती है कि *योग में श्रद्धालु पुरुष संयमी ना होने के कारण यदि अंत समय में योग से विचलित हो जाए तो उसकी क्या गति होती है ?* कहीं वह भ्रष्ट हो नष्ट तो नहीं हो जाता ! यथा :-
*कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति*
अर्जुन का यह अडिग विश्वास है कि मुझ पर *भगवत्कृपा* है और मेरे इस संशय को दूर करने वाला भगवान के अतिरिक्त और कोई भी नहीं हो सकता ! इस प्रश्न के उत्तर में भगवान भी अपना हृदय खोल कर रख देते हैं ! अर्जुन को *अत्यंत कृपा करके* उन्होंने *तात* शब्द से संबोधित किया *(यह संबोधन समस्त गीता में एक ही बार आया है)* भगवान ने आश्वासन देते हुए कहा:--
*न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति*
*अर्थात:-* हे पार्थ ! भगवान के अर्थ में कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता !
इस संसार में मनुष्य को दो ही प्रश्नों के विषय में सर्वाधिक जिज्ञासा रहती है ! *एक -* मनुष्य को अंत काल की गति और *दो-* उससे त्राण दिलाने वाली उपासना ! यही दोनों प्रश्न मनुष्य को परेशान करते रहते हैं ! अकारण करुणावरुणालय कृपालु भगवान श्री कृष्ण ने भी अर्जुन को निमित्त बनाकर सर्वसामान्य की सद्गति के भाव से गीता में इन्हीं दो प्रसंगों का सर्वाधिक विवेचन किया है ! यह मानवमात्र पर *विशेष भगवत्कृपा* ही है और यह *विशेष भगवत्कृपा* सनातन धर्म के धर्म ग्रंथों में ही देखने को मिल सकती है ! *सातवें अध्याय में* स्वयं भगवान ने अपनी ओर से कहना प्रारंभ किया ! भक्तों की बात आते ही भगवान मगन हो गए जैसे भगवान की चर्चा चलते ही भक्त मगन हो जाते हैं ! इस अध्याय में भगवान अपने चारों प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हुए आर्त्त और अर्थार्थी भक्तों को भी उदार बतलाते हैं ! *यह उनकी कितनी कृपावत्सलता है* ! आशय यह प्रतीत होता है कि ये ( आर्त्त अर्थार्थी आदि ) इस संसार से हटकर मुझ परमात्मा की ही और लग गए यह उनकी उदारता है ! कितनी *विलक्षण भगवत्कृपा* है कि प्रश्न तो अर्जुन पूछ रहे हैं और उत्तर समस्त संसार सुन रहा है ! मानवमात्र पर यह *विशेष भगवत्कृपा* ही है कि जो भगवद्गीता अर्जुन को भी दुबारा सुनने को नहीं मिली वह हमें आपको नित्य पढ़ने एवं सुनने को मिल रही है ! *कृपामयी भगवद्गीता* को भगवान की वाणी मानकर जो भी मनुष्य अपने जीवन में धारण कर लेता है वह *विशेष भगवत्कृपा पात्र* बनकर माया के प्रपञ्चों को काटने में सक्षम हो जाता है !