*कृपामयी भगवद्गीता* भगवान के श्री मुख से निकले हुए दिव्य वचन हैं ! यह *विशेष भगवत्कृपा* अर्जुन पर इसलिए हुई क्योंकि अर्जुन भगवान के *कृपाभाजन* थे ! श्रेष्ठ पुरुष अपने हृदय का गोपनीय से गोपनीय रहस्य भी अपने *कृपाभाजन* के सामने प्रकट कर देते हैं , अर्थात उनसे कुछ भी नहीं छुपाते ! इसी दृष्टि से भगवान ने *तीसरे अध्याय* में *कृपापूर्वक* कर्तव्य पालन पर बल देते हुए अर्जुन से कहा:--
*न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन !*
*नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि !!*
*यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः !!*
*यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् !*
*संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः !!*
*अर्थात्:-* हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नही है न ही किसी वस्तु का अभाव है न ही किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, फ़िर भी मैं कर्तव्य समझ कर कर्म करने में लगा रहता हूँ ! हे पार्थ! यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे ! इसलिए यदि मैं कर्तव्य समझ कर कर्म न करूँ तो ये सभी लोक भ्रष्ट हो जायेंगे तब मैं अवांछित-सृष्टि की उत्पत्ति का कारण हो जाऊँगा और इस प्रकार समस्त प्राणियों को नष्ट करने वाला बन जाऊँगा ! समस्त मानव जाति को यह दिव्य ज्ञान *विशेष भगवत्कृपा* के कारण ही प्राप्त हो रहा था !
*दोउ सेना मध्य खड़े मोहन ,*
*कुंती सुत कहँ समझाय रहे हैं !*
*है कर्म प्रधान सदा जग में ,*
*यह कर्म रहस्य बताय रहे हैं !!*
*जब मोह की काली निशा घेरिसि ,*
*तब ज्ञान कै ज्योति जलाय रहे हैं !*
*वहि ज्ञान के अगम समुन्दर महँ ,*
*"अर्जुन" मन मुदित नहाय रहे हैं !!*
(स्वरचित)
मानव मात्र के साथ स्वयं अपना भी कर्तव्य बताने के बाद भगवान क्षत्रियों के कर्म का महत्व बताते हुए *चौथे अध्याय* में परंपरा से प्राप्त *कर्मयोग* और उसकी अनादिता को सिद्ध करते हैं ! तत्पश्चात अपने को *आदि उपदेशक* बताते हुए कहते हैं कि :- मैं वही उपदेश जो लोपप्राय हो गया था फिर कहता हूं ! युद्धभूमि में युद्ध की बात न करके इस प्रकार ज्ञान भक्ति और निष्काम कर्म की बात करना *विशिष्ट भगवत्कृपा* ही है और कुछ भी नहीं ! *पांचवें अध्याय* का आरंभ अर्जुन की इस जिज्ञासा से होता है कि :- हे कृष्ण ! *आपने सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा बतलाई परंतु मेरे लिए दोनों में कौन से निश्चित रूप से श्रेयस्कर है ?* यह स्पष्ट बतलाइए ! ज्ञानयोग और कर्मयोग का विस्तृत विवेचन करते हुए और उन्हें तत्वप्राप्ति का स्वतंत्र साधन बतलाते हुए अंत में भगवान कहते हैं :- *अर्जुन ! मुझे संपूर्ण भूत प्राणियों का सुहृद ( तत्व ) से जान लेने मात्र से मनुष्य परम शांति को प्राप्त हो जाता है ! यथा:-
*सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति*
*ज्ञाता* पद से भगवान अर्जुन को मानो आश्वासन देते हुए कहते हैं कि तुम क्यों चिंता करते हो ? केवल मुझे सब भूतों का अर्थात अपना भी सुहृद जान लो ! इतने मात्र से तुम्हारे द्वारा कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग सब का अनुष्ठान स्वयं ठीक ठीक होने लगेगा ! यह *भगवान की कितनी कृपा है* , कितना सुगम उपाय है , जीवन के चरम लक्ष्य प्राप्ति का जो *विशेष भगवत्कृपा* से अर्जुन को प्राप्त हो रहा था !
*तजि सकल धरम मन बचन करम ,*
*संग जो शरणागत होई !*
*प्रभु सहज कृपाला दीनदयाला ,*
*झट अपनावत सोई !!*
*तब जन सुखदायक प्रभु सुरनायक ,*
*द्रवित भगत पर होई !*
*"अर्जुन" अज्ञानी भज धनुपानी ,*
*सकल विषमता खोई !!*
(स्वरचित)
जब मनुष्य मन के समस्त विकार मिटाकर अर्जुन की भाँति भगवान की शरण में जाता है तब उस पर *विशेष भगवत्कृपा* करने को भगवान भी विवश हो जाते हैं !