संसार में जन्म लेने के बाद लगभग सभी भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं *भगवत्प्राप्ति* करने के लिए अनेकों उपाय भी किया जाता है , परंतु यह सत्य है कि साधन , संयम , तप , त्याग , वैराग्य के बल से *भगवत्प्रेम* की प्राप्ति नहीं हो पाती है ! *भगवत्प्रेम* की प्राप्ति के लिए *भगवत्कृपा* का होना बहुत आवश्यक है ! *भगवत्कृपा* तभी होती है जब मनुष्य के विकारों का विनाश हो जाता है ! जब तक मनुष्य में विकार हैं तब तक *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होना कठिन है ! कोई भी कार्य हो , कोई भी साधना हो उसे निश्चल हृदय से करने पर ही उसमें सफलता प्राप्त होने का अवसर मिलता है और यह तभी हो सकता है जब *भगवत्कृपा* हो ! मनुष्य जब अपने विकारों का विनाश करके सकारात्मकता के साथ सत्पथ का अनुगामी होता है तो *भगवत्कृपा* अपने आप बरसने लगती है ! भगवान का स्वभाव ही है कृपा करना , कृपा तो वह करेंगे ही , परंतु इसके लिए उनकी कृपा पर एवं भगवान पर विश्वास बनाए रखना पड़ेगा ! बिना विश्वास के *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं हो सकता !
*कृपा भगवान की प्यारे सदा सब पर बरसती हैं !*
*नहीं बिश्वास जिन आँखों में बस वे ही तरसती हैं !!*
(स्वरचित)
*भगवत्कृपा* प्राप्त करने में सबसे बड़ा रोड़ा , सबसे बड़ी बाधा है मनुष्य का स्वयं का अहंकार ! मनुष्य के अंदर जितने भी विकार है उन सबका मूल अहंकार ही है ! यह रोग की भांति मनुष्य को जकड़ लेता है और फिर जल्दी छोड़ता नहीं है ! बाबाजी मानस में लिखते हैं :-
*अहंकार अति दुखद डमरुआ*
(मानस)
यह डमरूआ रोग की भांति ऐसा जकड़ता है कि इसके चंगुल से मनुष्य जल्दी निकल नहीं पाता ! अनादि काल से यही अहंकार जिसे अभिमान कहा जाता है मनुष्य को माया के बंधन में जकड़े हैं ! इसी के कारण मनुष्य भगवान से विमुख हो जाता है और उस पर *भगवत्कृपा* नहीं होती ! संसार में बार-बार आवागमन का कारण अहंकार को ही कहा गया है ! जितने भी दुख मनुष्य को प्राप्त होते हैं उसका कारण कहीं ना कहीं से अहंकार ही होता है ! यथा:--
*संसृत मूल सूलप्रद नाना !*
*सकल सोकदायक अभिमान !!*
(मानस)
इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए कि यदि भूल से भी किसी बात का अभिमान हो गया तो *भगवत्कृपा* की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती ! जब *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होती है तो मनुष्य को असीम शांति का अनुभव होता है परंतु इस शांति में सबसे बड़ी बाधा मनुष्य का अभिमान ही होता है ¢ इसी को दृष्टिगत रखते हुए *भक्त कवि बिंदु जी महाराज* लिखते हैं :--
*यदि तुमको है चाह शांति लाभ लूटने की ,*
*तो निज बड़प्पन की वासनाएं टाल दे !*
*अनुभव जनित अखंड रस लेना है तो ,*
*चित्त की चलायमान संगति संभाल दे !!*
*अमरत्व सुख का अमृत बिंदु पीना है तो ,*
*प्रेम पथिकों के चरणों में शीश डाल दे !*
*भगवान को बिठाना है मन के मकान में तो ,*
*पहिले महान अभिमान को निकाल दे !!*
(मोहन-मोहिनी)
जब तक चित्त में अभिमान है तब तक भगवान नहीं आ सकते और न तो भगवान का स्मरण ही हो पायेगा क्योंकि भगवान का स्मरण अभिमान से नहीं वरन दीनभाव से किया जाता है ! दीनभाव पर भगवान रीझ जाते हैं ! इसलिए यदि *भगवत्कृपा* की कामना है तो अभिमान को दूर से ही प्रणाम कर लेना ही उचित हैं ! जिस दिन अहंकार समाप्त करके मनुष्य दीनभाव से प्रभु को पुकारता है उसी दिन से उस पर *भगवत्कृपा* झलकने लगती है ! यही है *भगवत्कृपा का रहस्य !*