संसार में दो चीजें हैं पहला *ब्रह्म* दूसरा *ब्रह्मांड अर्थात संसार !* इन दोनों में विश्वसनीय कौन है ? किस पर विश्वास किया जाय और किस पर न किया जाय ? यह प्रत्येक मनुष्य को विचार करना चाहिए ! हमारे वेदों में लिखा है:--
*ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या*
*अर्थात:-* वह ब्रह्म ही सत्य है और सारा संसार झूठा है ! तो किसी झूठे पर विश्वास क्यों किया जाय ! भगवान पर तो विश्वास करना चाहिए परंतु संसार पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए ! देखने , सुनने , समझने आदि में जो संसार आता है वह प्रतिपल परिवर्तनशील है ! पल-पल बदल रहा है और यह मैं नहीं कह रहा हूं इसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य करता भी है ! अब स्वयं विचार कीजिए कि *जो पल पल में बदल जाए उसका विश्वास कैसे किया जा सकता है* अर्थात संसार विश्वास पात्र नहीं है , संसार तो सेवापात्र है जो सेवा करना और कराना ही जानता है ! *तो विश्वास किस पर किया जाय ?* विश्वास उस पर किया जाय जिसके गुण - स्वभाव कभी परिवर्तित ना हो और *वह सिर्फ भगवान ही हैं* वह जैसे थे वैसे ही बने रहते हैं उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है | भगवान पर विश्वास क्यों करना चाहिए क्योंकि *भगवत्कृपा* हुई तो उन्होंने हमको यह मानव शरीर दिया ! भगवान ने हमको यह मानव शरीर कृपा करके अपनी ही प्राप्ति के लिए दिया है ! जब शरीर दे दिया तो अपनी प्राप्ति करने के लिए साधन सामग्री भी प्रदान की है ! भगवान को प्राप्त करने के लिए *भगवतकृपा* से साधन सामग्री की कमी नहीं है जितना साधन हमको प्राप्त है उससे अनेकों बार भगवान की प्राप्ति की जा सकती है जबकि आवश्यकता सिर्फ एक बार भगवान को प्राप्त करने की है क्योंकि जब एक बार भगवत प्राप्ति हो जाती है तो सदा के लिए हो जाती ! सुंदर मानव का शरीर दे करके हम पर जो *भगवत्कृपा* भगवान ने की है वह अपनी प्राप्ति करने के लिए ही है ! करुणासिंधु भगवान को प्राप्त करने के लिए सबसे सरल साधन है *भगवान का भजन* वह भी मनुष्य नहीं कर पाता तो *भगवत्कृपा* कैसे होगी ?
*सुंदर मानुष का तन पा किया ना भजन ,*
*नर्क चौरासी जाए तो वह क्या करें !*
*देने देने वाले ने दुनिया में सब कुछ दिया ,*
*पाने वाला ना पाए तो वह क्या करें !!*
साधक को प्राय: ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे पास भगवत प्राप्ति के लिए साधन सामग्री नहीं है ! अत: वह इच्छा करता है कि कहीं से कोई साधन सामग्री मिल जाय ! कोई कुछ बता दे , कुछ समझा दे ! *भगवत्कृपा* पाने के लिए वह अनेक विद्वानों की शरण में दौड़ता है ! जबकि सारी साधन सामग्री उसके पास स्वयं होती है ! महाभारत के युद्ध में अर्जुन भी यही सोचते थे कि मेरे पास साधन सामग्री ( दैवी संपत्ति ) कम है इसलिए वह मोहग्रस्त हो गए ! भगवान ने उनको आश्वासन दिया और कहा कि हे अर्जुन :--
*मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातो$सि पाण्डव*
(गीता/१६/५)
तुम्हारे में दैवी संपत्ति कम नहीं है ! प्रत्युत स्वत: स्वाभाविक विद्यमान है ! इसलिए तुम चिंता मत करो निराश मत हो ! *भगवत्कृपा* से मानव शरीर प्राप्त हो जाय और कल्याण की साधन सामग्री न मिले ऐसी भूल भगवान से हो ही नहीं सकती ! भगवान ने अपना कल्याण करने के लिए विवेक भी दिया है , योग्यता भी दी है , अधिकार भी दिया है , समय भी दिया है , सामर्थ्य भी दिया है ! कुल मिलाकर संपूर्ण *भगवत्कृपा* मनुष्य को प्राप्त हो रही है परंतु फिर भी मनुष्य विचार करता है कि हमें भगवान ने ऐसी योग्यता नहीं दी , इतनी बुद्धि नहीं दी , इतना सामग्री नहीं दी , ऐसी सहायता नहीं दी तो हम क्या करें ? अपना उद्धार कैसे करें ? यह भगवान के प्रति हमारी कृतघ्नता है ! सब पर बराबर *भगवत्कृपा* बरस रही है ! किसी को कम किसी को ज्यादा भगवान भला कैसे प्रदान कर सकते हैं ? भगवान समदर्शी हैं उनकी कृपा सब पर समान रूप से बरसती है !