*भगवत्कृपा* की पहचान करने के लिए भी *भगवत्कृपा* की आवश्यकता होती है क्योंकि मनुष्य अपने अनुसार , अपनी सोच के अनुसार *भगवत्कृपा* मानने लगता है , परंतु यह सत्य है कि स्त्री , पुत्र , धन , संपत्ति आदि अनुकूल सांसारिक भोग पदार्थों की प्राप्ति हो जाना ही *भगवत्कृपा* नहीं है अनुकूलता में परम हितैषी प्रभु की जितनी कृपा रहती है उससे भी विशेष कृपा प्रतिकूलता में रहती है :---
*लालने ताड़ने मातूर्नाकारुण्यं यथार्भके !*
*तद्वदेव महेशस्य नियंतुर्गुणदोषयो: !!*
*अर्थात्:-* जिस प्रकार बच्चे को प्यार करने और ताड़ना देने दोनों में माता की दया ही है उसी प्रकार जीवो के गुण दोषों का नियंत्रण करने वाले भगवान की सब प्रकाश से उन पर कृपा ही है ! एक ही *भगवत्कृपा* हमारी साधारण दृष्टि के अनुसार दो रूपों में आया करती है-- अनुकूल और प्रतिकूल ! संसार में जितने भी प्रतिकूलताएं आती हैं वह सब *भगवान की विशुद्ध कृपा* का ही परिणाम है *कृपामय भगवान की कृपा* चाहे जिस रूप में भी आए सदैव परम मंगल ही करती है !
*मान - अभिमान , अपमान - सम्मान मिले ,*
*निन्दा या प्रशंसा हो नहीं घबराते हैं !*
*सुख मिले दुख मिले हानि हो या लाभ मिले ,*
*हर्ष मिले शोक मिले हंस के निभाते हैं !!*
*सदा कल्याणकारी भगवत्कृपा को मान ,*
*प्रभु चरणों में सदा शीश जो झुकाते हैं !*
*"अर्जुन" वही मनुष्य प्रेमी भगवान के बन ,*
*भगवत्कृपा का आनन्द लूट पाते हैं !!*
(स्वरचित)
मान-अभिमान , सुख-दुख , प्रशंसा-निंदा और लाभ हानि-सभी रूपों में *भगवत्कृपा* जीवो का कल्याण करने के लिए ही आती है ! *भगवत्कृपा* के दिव्य साम्राज्य में सुख दुख कि यह परिस्थितियां भी प्रतिभाषिक मात्र हैं ! वास्तव में उनकी कोई सत्ता नहीं है ! जब संसार से वैराग्य उत्पन्न होने लगी तब मनुष्य को अपने पर *विशेष भगवत्कृपा* समझनी चाहिए ! जब भगवान में प्रेम की वृद्धि और संसार से आसक्ति का ह्रास होने लगे तब अपने पर *भगवान की अपार कृपा* समझनी चाहिए ! अपने भीतर देवी संपत्ति के गुणों का आना *भगवत्कृपा* वृष्टि का चिन्ह है ! संतों का संग प्राप्त होना *भगवत्कृपा* का असाधारण फल है !
*मंगलमय भगवत्कृपा मंगलमय भगवान !*
*मंगलमय रहता सदा भगवत्कृपा विधान !!*
*षडविकार को त्यागकर , कर श्रद्धा विश्वास !*
*जीवन में होने लगे भगवत्कृपा प्रकाश !!*
(स्वरचित)
मनुष्य को *भगवत्कृपा* का अनुभव करने के लिए सबसे पहले यह दृढ़ निश्चय करना पड़ेगा कि मंगलमय भगवान के प्रत्येक विधान में उनकी *परम कल्याणकारी अहैतुकी कृपा* रहती है फिर चाहे जैसी स्थिति आए यही मानता रहे कि भगवान आपकी हम पर अपार कृपा है ! ऐसा मानने से कुछ काल के अनंतर ही *भगवत्कृपा* का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगेगा !