*भगवत्कृपा* निरंतर सब पर है परंतु *कर्म एवं पुरुषार्थ* करने पर ही *भगवत्कृपा* का अनुभव एवं प्राप्ति होती है ! *जैसे:-* तैरना जानते हुए भी जब कोई जल की धारा में कूदकर हाथ पांव नहीं हिलाता तो वह डूब जाता है ! *इसी प्रकार* शास्त्र जानते हुए भी यदि कोई शास्त्रों के अनुसार आचरण नहीं करता तो वह विपत्ति में पड़ जाता है ! ऐसी स्थिति -- विपत्ति में पड़ने पर तो केवल भगवान की सहायता करते हैं ! अतः *पुरुषार्थ* के संदर्भ में सत् और असत् की विवेकख्याति आवश्यक है ! यों तो *पुरुषार्थ* अपने आप में निष्क्रिय या निष्फल है , यह सक्रिय और सफल तभी होता है जब *पुरुष* उसे अपने *अर्थ* (प्रयोजन) के लिए प्रयुक्त करता है नीतिकारों का कहना है :--
*काकतालीयवत्प्राप्ते दृष्ट्वापि निधिमग्रत: !*
*न स्वयं दैवमादत्ते पुरुषार्थमपेक्षते !!*
*अर्थात:-* संयोगवश या *भगवत्कृपावश* सामने धन का ढेर दिखलाई पड़ता है तो स्वयं भगवान उसे उठाकर गठरी में नहीं बांध देते अपितु उसकी प्राप्ति के लिए *पुरुषार्थ* की अपेक्षा होती है ! कहना न होगा कि जीवन का प्रत्येक क्षण *पुरुषार्थ* से ही गतिशील रहता है ! *शास्त्र पढ़ लेना कोई बड़ी बात नहीं है , बड़ी बात है शास्त्र ज्ञान के प्रकाश में क्रियावान होना !* असली विद्वान तो क्रियावान ही होता है ! इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सक्रियता ही जीवन है और सक्रिय होने की प्रेरणा भी *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त होती है ! मनुष्य के बहुत प्रयास करने पर भी जो कार्य सिद्ध नहीं होता *भगवत्कृपा* से वह अनायास ही सफल होते देखा गया है ! इसीलिए भगवान को *अघटितघटनापटीयान्* विशेषण से विभूषित किया गया है ! स्पष्ट है कि अलौकिक उपायों से जिन विपत्तियों का प्रतिकार नहीं हो सकता उनसे रक्षा *भगवत्कृपा* अपने अचिंत्य , अलौकिक स्वरूप में प्रकट होकर स्वत: कर देती है ! निसंदेह *भगवत्कृपा* की अनुभूति तर्क से नहीं प्राप्त हो सकती , उसकी उपलब्धि तो एकांत भक्ति से ही संभव है ! ज्ञानातीत सर्वोच्च सत्ता के प्रति अवितर्क भाव से समर्पण ही पराभक्ति है और यह भक्ति भी *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त होती है !
*तस्यैव तु प्रसादेन भक्तिरुत्पद्यते नृणाम्*
जिस प्रकार सूर्य अस्पृश्यों के घर से भी अपनी किरणों को नहीं समेटते उसी प्रकार *भगवत्कृपा* आस्तिक या नास्तिक का कोई विभेद न कर सब पर समान रूप से बरसती रहती है ! यह और बात है कि नास्तिकों को पूर्वाग्रहवश अपने ऊपर धाराप्रवाह बरसने वाली *भगवत्कृपा* का कोई आभास नहीं होता ! यों संपूर्ण सृष्टि ही *भगवत्कृपा* की प्रभावशालिनी वितति से संवलित है क्योंकि उसकी सर्वाधिक व्यापकसत्ता सर्वथा अनुल्लंघनीय है ! अवश्य ही *भगवत्कृपा* सब पर समान रूप से है किंतु जो अज्ञ प्राणी उसकी अनुभूति नहीं कर पाता वह अपने को दुखी समझता है ! जहां निरंतर *भगवत्कृपा* की अनुभूति होती है वहां विभूतिमत्ता , श्रीमत्ता उर्जितत्व आदि महार्घ उत्कर्ष सहज ही दृष्टिगत होते हैं ! *निष्कर्ष यह है कि* सुख और आनंद *भगवत्कृपा* की अनुभूति के प्रतीक हैं जहां *भगवत्कृपा* की अनुभूति नहीं होती है वहां दुख और निरानन्द जड़ जमाए रहते हैं !