मनुष्य भौतिक समृद्धि में शाश्वत सुख , शांति और आनंद करने का प्रयास करता है , परंतु भौतिक सुख अपूर्ण एवं नाशवान हैं अतः उयसे स्थाई सुख नहीं मिल सकता ! अपनी इस चेष्टा में निष्फल मनुष्य स्वत: भगवान की ओर आकर्षित होता है , तथा संतो और सद्ग्रन्थों का आश्रय लेकर अपने अनुकूल आध्यात्मिक मार्ग की खोज करता है !
*नाशवान संसार यह नाशवान यह देह !*
*नाशवान से क्यों करें मानव सच्चा नेह !!*
*सुख की इच्छा यदि तुझे तो कर प्रभु का ध्यान !*
*ध्यानमात्र से प्राप्त हो भगवत्कृपा महान !!*
(स्वरचित)
सुख की खोज में भटकते हुए मानव की भेंट भौतिक सुखों में आनंद मानने वाले और उसी को जीवन का परम और चरम लक्ष्य मानने वाले लोगों से होती है , अतः भी उनकी तरह भौतिक सुख प्राप्त करने का ध्येय बताता है किंतु गंभीर विचार , सत्संग , सत् शास्त्रअध्ययन या किसी प्रकार से भी उसे जब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह संसार दुखमय है , इसमें सच्चे सुख का लेश भी नहीं है , अब तो एकमात्र प्रभु ही मेरे हैं तब उसे संतों और भगवान की *अहैतुकी कृपा* का दिव्य अनुभव होता है ! वह साधारण सांसारिक जनों की *कृपा* की अपेक्षा *भगवत्कृपा* की विशिष्टता को समझता है ! *भगवत्कृपा* की विशेषता के संबंध में विचार करते समय एक बात स्पष्ट समझ में आती है कि भगवान सर्वसुहृद हैं ! अतः उनकी *कृपादृष्टि* प्राणियों पर एक सी होती है परंतु उसके अनुभव का आनंद जैसा ईश्वरीय मार्ग में जाने वाले श्रद्धालु साधक को प्राप्त होता है वैसा भगवान से विमुख रहने वाले लोगों को नहीं हो पाता , क्योंकि ऐसे मनुष्य स्थूल सुख-दुख को *भगवत्कृपा* अथवा अकृपा के रूप में देखते हैं ! वे इस बात को भूल जाते हैं कि मंगलमय भगवान का प्रत्येक विधान प्राणी मात्र के मंगल को लक्ष्य में रखकर निश्चित होता है !
*मंगलमय भगवान का मंगलमयी विधान !*
*मंगल करते हैं सदा दीनबन्धु भगवान !!*
*श्रद्धा अरु विश्वास से रखो सुन्दर दृष्टि !*
*अनायास हो जायेगी भगवत्कृपा की वृष्टि !!*
(स्वरचित)
श्री भगवान कहीं और कभी भी अकृपा नहीं करते , जैसे साधारण मनुष्य कारणवश अपने संपर्क में आने वाले लोगों पर कृपा - अकृपा करते हैं वैसी नीति भगवान पर लागू नहीं होती क्योंकि वह तो *अहैतुकी कृपा* करने वाले हैं ! भगवान और सांसारिक जन दोनों की कृपा करने के कारण भिन्न भिन्न होते है ! ईश्वर विमुख मानव साधारणत: धनवान और सत्तावान की कृपा याचना करता है परंतु थन सत्ता वाला मनुष्य किसी पर कृपा करने के पहले इस बात पर विचार करता है कि कृपाकांक्षी मनुष्य अपने लिए कितना उपयोगी सिद्ध हो सकेगा , क्योंकि वह कितना भी ऐश्वर्यशाली क्यों ना हो वस्तुतः अभावग्रस्त ही है ! अतः याचक के अन्य गुण दोषों पर ध्यान नहीं देता ! याचक कृपा द्वारा प्राप्त वस्तु का सदुपयोग करता है या दुरुपयोग इसकी भी जानकारी वह नहीं रखता ! फलत: भौतिक सुखों की लालसा वाला मनुष्य जनसाधारण के लिए दुखरूप हो जाता है , *परंतु भगवान की कृपा करने की विधि इससे अलग है* जिसके ऊपर कृपा करते हैं उसके दोषों को उग्र या सौम्य किसी भी उपाय से दूर कर उसके अंतःकरण की शुद्धि करते हैं !क्योंकि भगवान को छल छिद्र या कपट अच्छा नहीं लगता ! भगवान ने स्वयं कहा है :--
*निर्मल मन जन सो मोहिं पावा !*
*मोंहिं कपट छल छिद्र न भावा !!*
(मानस)
परमार्थ पथ पर मिथ्याचारी या दम्भी नहीं चल सकता इसलिए आध्यात्म मार्ग के पथ प्रदर्शक महापुरुष प्रभु में शुद्ध भाव की स्थापना करने तथा दम्भ या चतुराई न करने की सलाह देते हैं ! इसका कारण यह है कि भगवान सर्वज्ञ और सर्वविद होने के कारण सब प्राणियों के अंतः करण की स्थिति को जानते हैं ! अतः दम्भ करना *भगवत्कृपावर्षण* को रोकने के लिए छाता लगाने के समान है !