श्री भगवान *अहैतुकी कृपा* करते हैं , यह बात सच्ची होने पर भी साधक को सिद्धि के प्रलोभन में न पड़कर साधन मार्ग में आने वाले अधिभौतिक और अधिदैविक विघ्नों से क्षुब्ध ना होकर इस मार्ग का दृढ़ता पूर्वक अनुसरण करना चाहिए ! ऐसे दृढ़ एवं श्रद्धालु साधक के मार्ग में यदि विघ्न भी आता है तो *भगवत्कृपा* उसका निवारण कर उसे सही लक्ष्य तक पहुंचा देती है ! क्योंकि यह तो भगवान की घोषणा है :--
*सुनि मुनि तोहिं कहउँ सहरोसा !*
*जिन्हहिं सकल तजि मोर भरोसा !!*
*करउँ सदा तिन्ह कइ रखवारी !*
*जिमि बालक राखइ महतारी !!*
(मानस)
*भगवत्कृपा* श्री भगवान का स्वरूप ही है इसलिए संपूर्ण रुप से इसका रहस्य स्वयं भगवान ही जानते है ! *स्थूल सुख को भगवत्कृपा और स्थूल दुख को भगवान की अकृपा मानना बड़ी भूल है !* साधना मार्ग में चलते समय दुख या यातना भी भोगनी पड़े तो साधक उसे अपने प्रियतम का प्रसाद मानकर प्रसन्नता पूर्वक शिरोधार्य करता है !
*परवाह न सुख दुख की न जिन्हें ,*
*सब मानि प्रसाद ग्रहण करते हैं !*
*कंटकमय मार्ग भले ही मिलें ,*
*उस पर चलने से न जो डरते हैं !!*
*भगवान सदा करते हैं भला ,*
*यह भाव जो अपने हिय धरते हैं !*
*भगवन्त कृपा बरसे उन पर ,*
*उनकी रक्षा श्री हरि करते हैं !!*
(स्वरचित)
यद्यपि साधक अनेक प्रकार के दुख और यातना भोगता है तथापि *भगवत्कृपा* से उसके मन में शांति और आनंद का समुद्र लहराता रहता है ! यह *भगवत्कृपा* की विलक्षणता है ! *भगवत्कृपा* भक्तों को सुख और दुख में धैर्य पूर्वक समान रहने की क्षमता प्रदान करती है ! सच्चा भक्त तो दुख को भी *भगवत्कृपा* का ही वरदान समझता है क्योंकि दुख में उसको भगवान का निरंतर स्मरण होता है ! अपने भक्तों के प्रकार बतलाते हुए श्री भगवान नी आर्त्त भक्तों को सर्वप्रथम स्थान दिया है , क्योंकि आर्त्त हृदय की पुकार भगवान के पास शीघ्रातिशीघ्र पहुंचती है ! और दुख में आर्त्तभाव की अपेक्षाकृत अधिकता होने के कारण *भगवत्कृपा* का अनुभव शीघ्रता से होता है ! संसार में प्राय: सभी सुख ही चाहते हैं ! दुख कोई पाना ही नहीं चाहता !
*सुख सुख सब कोई करै , दुख न चाहै कोय !*
*दुख मिलते ही रुदन करि , दीन हीन सब होयं !!*
(स्वरचित)
दुख में *विशेष भगवत्कृपा* मिलती है शायद इसी कारण माता कुंती भगवान से याचना करती हैं कि हे प्रभु हमें सदा दुख ही दुख देना , जिससे निरंतर आपका स्मरण होता रहे ! भक्तों की दृष्टि में भगवत स्मरण ही सबसे बड़ा सुख तथा भगवान का विस्मरण की सबसे बड़ा दुख एवं विपत्ति है ! हनुमान जी कहते हैं :--
*कह हनुमंत विपति प्रभु सोई !*
*जब तव सुमिरन भजन न होई !!*
(मानस)
*भगवत्कृपा* से साधक की दृष्टि केवल बदलती ही नहीं अपितु नई प्राप्त भी होती है ! साधारण मनुष्य थोड़ी शारीरिक यातना से त्रस्त हो जाता है किंतु अनेक संतों ने जीवन की अत्यंत कष्टप्रद यातना काल में भी *भगवत्कृपा* का दर्शन किया है , और इससे प्राणान्तकारी कष्ट में भी उनके मन की स्थिरता तथा *भगवत्कृपा* में श्रद्धा बनी रही उनका वह श्रद्धारूप दीपक जलता रहा जो आज भी असंख्य साधकों का पथप्रदर्शन करता है और करता रहेगा ! *भगवत्कृपा* का एक अन्य वैशिष्ट्य यह भी है कि वह साधक को कदापि भगवान से विमुख नहीं होने देती , अपितु समस्त निर्बलताओं को पार करने में उसकी सहायता करती है ! अभिमान मनुष्य के लिए अधोगति का कारण बनता है परंतु *भगवत्कृपा* अभिमान की कारण रूपा कामनाओं को भगवान से तन्मय कर देती है ! जो कुछ होता है वह केवल भगवान की इच्छा से ही होता है ऐसा विश्वास दिलाकर अर्थात साधक का अभिमान मिटा कर उसे पतन से बचा लेती है क्योंकि जो अपने को ही संपूर्ण कर्ता मानता है उसी के लिए अभिमान बंधन रूप होता है !