इस संसार में बिना कारण की कोई कार्य नहीं होता ! हर कार्य का कोई न कोई तात्पर्य होता है ! *तात्पर्य क्या है ?* इस विषय में हमारे शास्त्र बताते हैं कि तात्पर्य विषय में ही शब्द का प्रमाण होता है :-
*तात्पर्य विषय एव शब्दप्रामाण्यमिति*
अगर इसको यह कहा जाए कि तात्पर्य ही उद्देश्य है और उद्देश्य ही तात्पर्य है तो गलत नहीं होगा ! *तात्पर्य का अर्थ है उद्देश्यत्व अर्थात अभिप्रायी विषयत्व* विषय में ही शब्द का प्रामाण्य होता है ! इसलिए अर्थवाद वाक्यों में प्रशंसापरक वाक्य प्रवृति के उद्देश्य और निंदापरक वाक्य निवृत्ति के उद्देश्य प्रयुक्त होने के कारण प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही उनका तात्पर्य माना जाता है ! *तात्पर्य अर्थ है- वक्ता का अभिप्राय* अभिप्रेत या विवक्षित अर्थ को समझना ही तात्पर्य ज्ञान कहलाता है ! प्रकरण से ही विवक्षित अर्थ का निश्चय किया जाता है ! प्रवृत्ति - निवृत्ति के विषय में वक्ता का अभिप्राय ही अभिधेय होने से विधि है ! प्राचीन नैयायिकों के मत से *ईष्टसाधनत्व* और नवीन नैयायिकों मत में *आप्ताभिप्राय* विध्यर्थ है ! विधि में स्वार्थ बोधन द्वारा ही तात्पर्य है :-
*स्वार्थद्वारैव तात्पर्यम्*
( न्याय कुसुमांजलि )
अतः *भगवत्कृपा* का तात्पर्य प्रकरण अथवा स्वार्थ बोधन द्वारा सहज में विदित किया जा सकता है ! भगवान शब्द का अर्थ है जो सब का भरण , पोषण , आधार , शरण के योग्य ,सर्वत्र व्यापक और कृपालु -- इन षडगुणों से पूर्ण हो उसे भगवान कहना चाहिए :---
*रक्षणे सर्वभूतानामहमेव परो विभु !*
*इति सामर्थ्यसंधानं कृपा सा परमेश्वरी !!*
(भगवद्गुणदर्पण)
*अर्थात:-* समस्त प्राणियों की रक्षा करने में मैं ही सर्वव्यापक परम समर्थ हूँ ! इस प्रकार का सामर्थ्य का जो अनुसंधान है *वह सामर्थ्यशालिनी कृपा है* अपने स्वार्थ की अपेक्षा ना करके दूसरों के दुख विनाश की जो इच्छा है *उसे ही करुणा कहते हैं* अतः *भगवत्कृपा* का तात्पर्य *भगवत्कृपा शब्द* के अर्थ से ही विदित है ! सूरदास जी ने *भगवत्कृपा* भगवान और भक्त का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है :---
*भक्त बिरह कातर करुनामय डोलत पाछे लागे !*
*"सूरदास" ऐसे स्वामी कौं देहि पीठ सो भागे !!*
अपनी कालजयी रचना श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने *भगवत्कृपा* का तात्पर्य बतलाया है :---
*आकर चारि लाख चौरासी !*
*जाति जीव जल थल नभ बासी !!*
*फिरत सदा माया कर प्रेरा !*
*काल कर्म सुभाव गुन घेरा !!*
*कबहुँक करि करुना नर देही !*
*देत ईस बिनु हेतु सनेही !!*
*नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो !*
*सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो !!*
*करनधार सदगुर दृढ़ नावा !*
*दुर्लभ साज सुलभ करि पावा !!*
( मानस )
भगवान स्वभावत: परम दयालु हैं , दयालुता के आगे कुछ भी अकार्य नहीं है !
*नाकार्यमस्ति किमपीह दयालुताया:*
सज्जन लोग असज्जनों पर भी दया करते हैं :--
*सतामेषो$मल: पन्था दयंते हृासतामपि*
दया द्रवित चित्त वाले सत पुरुषों के लिए आपत्ति काल में यह दया करने योग्य है या नहीं इस प्रकार की धारणा ( भावना ) शोभा नहीं देती :--
*अयं योग्यो$थवायोग्य इत्येवं सम्प्रधारणा !*
*आपत्काले न शोभेत दयार्द्रमनसां सताम् !!*
अतः *भगवत्कृपा* का तात्पर्य योग्य अयोग्य का विचार किए बिना दुर्जनों पर भी अहैतुकी दया करने में है !