*भगवत्कृपा* का तात्पर्य साधारण नहीं हो सकता ! श्रीमद्भगवतगीता के माध्यम से स्वयं भगवान अर्जुन से कहते हैं :--
*मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात मेरे कृपा प्रसाद से जीव सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है ! आगे भगवान कहते हैं
*मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* मुझ में चित्तवाला होकर तू मेरी *कृपा* से समस्त संकटों को अनायास ही प्रकार पार कर जाएगा ! जब भक्तों पर भगवान की इस प्रकार *कृपा* होती है तो इस *भगवत्कृपा* के उत्तर में भक्त अर्थात अर्जुन भी कहते हैं :--
*नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* से अच्युत् ! आपकी कृपा प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है ! मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है ! अतः शाश्वत अव्यय परम पद प्राप्ति ही *भगवत्कृपा* का तात्पर्य है ! लौकिक सुख में वास्तव में दुख ही है :--
*परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:*
(योग सूत्र )
*अर्थात:-* परिणामदु:ख , तापदु;ख और संस्कारदु:ख ऐसे तीन प्रकार के दु:खों के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी के लिए सब के सब (कर्मफल) दु:ख रूप ही हैं !
*ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते !*
*आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात्:-* जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं , वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं ! अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता अतएव *भगवत्कृपा* का तात्पर्य अलौकिक सुख में ना होकर पारलौकिक शाश्वत सुख में है जो अमृत स्वरूप है ! इस प्रकार दुखों की आत्यंतिक निवृत्ति और शाश्वत आनंद प्रदान करना ही *भगवत्कृपा* का तात्पर्य है ! संतों की उक्ति है - *ईश्वरप्रेमियों के लिए है उनका स्नेह* और
*पापियों के लिए है उनकी दया*
इस रहस्य को सभी जान नहीं पाते हैं प्राय: अधिकांश मनुष्य ऐसा अनुभव करते हैं कि जीवन में जब भीषण संकटमयी परिस्थिति आती है तो उपयुक्त समय पर कोई ऐसी आकस्मिक , अप्रत्याशित घटना घटित हो जाती है जिसके कारण अद्भुत ढंग से हमारी उस संकट से रक्षा हो जाती है ! ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करने वाले लोग ऐसी घटनाओं को संयोग मांगते हैं परंतु ईश्वर की सत्ता को अबाध रूप से स्वीकार करने वाले भाग्यवान मनुष्य इसे परम कृपालु की *मंगलमय कृपा* ही समझते हैं ! सत्य रूप में विश्व की कोई भी घटना अकारण नहीं घटती जो कुछ भी घटित हो रहा है वह करुणावरूणालय की *परम रहस्यमयी अहेतुकी कृपा* का ही परिणाम है ! भगवान कृपा के अनंत असीम अथाह समुद्र हैं इस अवर्णनीय , अतुलनीय , अचिंत्य अगाध कृपा-सिंधु की थाह कौन पा सकता है ? *उन परम कृपालु प्रभु का श्री विग्रह कृपामय है उसमें कृपा ही कृपा भरी है* इस संसार में बिना तात्पर्य के कुछ भी नहीं होता ! *भगवतकृपा* ही समस्त प्राणियों पर अबाध रूप से बरस रही है ! भगवान की समस्त शक्तियों में *कृपा शक्ति* प्रधान है अन्य सभी शक्तियां इसी के अनुभव और नियंत्रण में रहने वाली हैं ! इस *कृपा शक्ति* के कारण ही भगवान अपने भक्तों के अधीन हो जाते हैं !