सुंदर जीवन निर्माण की आधारशिला भावशुद्धि है भावशुद्धि के बिना कर्म शुद्धि असंभव है ! भावअशुद्धि से भ्रांति तथा भावशुद्धि से शांति और परम पद की प्राप्ति होती है ! हीरे की प्राप्ति के पश्चात कांच के मनके से वह अपने आप कम हो जाता है , जाग जाने पर सपनों का भ्रम स्वयं दूर हो जाता है ! इसी भांति भावशुद्धि होते ही *भगवत्कृपा* और उनसे अभिन्नता की अनुभूति अपने आप होने लगती है ! मानव जीवन ही श्रेष्ठ निर्माता की सबसे श्रेष्ठ कृति है ! संसार की कोई भी शक्ति अथवा संपत्ति मानव जीवन के प्राप्ति से बढ़कर नहीं हो सकती ! संपूर्ण मानव जीवन अथवा अरबों खरबों रुपए खर्च करके भी उसके एक छोटे से अंग का निर्माण नहीं किया जा सकता ! तत्वज्ञान तथा भौतिक विज्ञान दोनों ने मानव शक्ति की गरिमा को स्वीकार किया है , लेकिन इन दोनों का अनुदेशक , आविष्कारक तथा प्रचारक मनुष्य ही तो है , और मानव जीवन की प्राप्ति का हेतु केवल और केवल *भगवत्कृपा* है
*जीवे दु:खाकुले तस्य कृपा काप्युप्रजायते*
जीव को व्याकुल देखकर भगवान *कृपा पूर्वक* कभी यह मानव शरीर दे देते हैं किंतु मानव जीवन की श्रेष्ठता तभी सार्थक होगी जब श्रेष्ठता के दाता *अहैतुकी कृपा* को हम व्यवहारिक रूप देंगे ! हमारे आचार विचार एवं कार्य की प्रत्येक ईंट सत्य की सीमेंट तथा भगवद्भक्ति की जलधार में इस प्रकार सनी होनी चाहिए जिससे हमारे बज्रवत् सुदृढ़ चरित्र रूप प्रासाद का निर्माण हो सके ! राष्ट्रीयता के उत्थान तथा मानवता के कल्याण के लिए ऐसे दृढ़व्रतरत् सुंदर व्यक्तित्व की सर्वत्र अपेक्षा और आवश्यकता है ! प्रभु की *अहैतुकी कृपा* का आदर करने से सभी समस्याओं का समाधान सरलता से हो जाता है ! *जो हमारे ना चाहने पर भी हम को चाहते हैं , जो हमारे ना जानने पर भी हम को जानते हैं , और जो हमारे नाम मानने पर भी हम को मानते हैं तथा प्रेम करते हैं* वह तो इतने अकारणकरुण परम कृपालु हैं कि हमारे कुछ ना करने पर भी हमको सब कुछ देते रहते हैं , और शत्रु भाव से मनन करने वाले का भी कल्याण ही करते हैं ! मित्रता के भाव से ध्यान करने वालों का तो योगक्षेम भी वैसे ही स्वयं वहन करते हैं ! इससे बढ़कर *भगवत्कृपा* का और कौन उदाहरण हो सकता है ! मानव जीवन की पूर्णता स्वाधीनता में निहित है इस स्वाधीनता का ही दूसरा नाम भक्ति , मुक्ति , शांतिधाम अथवा *परम विश्राम* है ! धर्म , अर्थ और काम को पुरुषार्थ तथा मोक्ष रूप प्रभु प्रेम को परम पुरुषार्थ कहा गया है ! बंधन और मोक्ष का कारण मानव मन में निहित अनेक कामनाओं की उत्पत्ति और निवृत्ति है ! कामना की उत्पत्ति से दुख पूर्ति से सुख तथा निवृत्ति से परम विश्राम की प्राप्ति होती है ! राग से कामनाओं की उत्पत्ति और त्याग से कामनाओं की निवृत्ति होती है ! इसलिए भगवान ने सभी प्रकार के कर्मों को अपने चरणों में अर्पित करने को कहा है :--
*यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् !*
*यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात :-* हे अर्जुन ! तुम जो कुछ कर्म करते हो , जो कुछ खाते हो , जो कुछ हवन करते हो , जो कुछ दान देते हो और जो कुछ स्वधर्माचरण रूप तप करते हो वह सब मुझे अर्पण कर दो ! इस प्रकार भगवतप्रीत्यर्थ अथवा जनकल्याणार्थ सर्वस्व समर्पण की भावना दृढ़ होते ही व्यक्ति *भगवत्कृपा* से :--
*क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* व्यक्ति *भगवत्कृपा* से शीघ्र ही धर्मात्मा बनकर परम विश्राम को प्राप्त हो जाता है ! इस मानव जीवन का लक्ष्य परम विश्राम को प्राप्त करना है जो कि *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त हो सकता है परंतु लोग अधिक धन , अधिक परिवार , बंधु - बांधव ,कुटुंब आदि की बहुलता को ही *भगवत्कृपा* मानते हैं ! जबकि जो इन सांसारिक वैभव के प्रपंच में फंसा है उसे *भगवत्कृपा* का कभी अनुभव भी नहीं हो सकता ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए संसार को छोड़ना आवश्यक नहीं है परंतु संसार में रहते हुए उसी प्रकार चलना है जिस प्रकार नाव चलती तो पानी में है लेकिन नाव में पानी नहीं आने पाता , क्योंकि मल्लाह यह जानता है कि यदि नाव में पानी आ गया तो नाव पानी में डूब जाएगी ! उसी प्रकार इस मन रूपी नाव में विषयरूपी पानी नहीं भरना चाहिए ! इस रहस्य को जो भी जान लेता है वह *भगवत्कृपा का पात्र* बन जाता है !