आज की आधुनिकता की चकाचौंध में मनुष्य *भगवान एवं भगवत्कृपा* के प्रति अनेकानेक प्रश्न उठाया करता है ! *क्या भगवत्कृपा नित्यसिद्ध है ?* यह आज के युग का एक तर्कपूर्ण प्रश्न है ! यदि वह नित्यसिद्ध है तो साधन अनपेक्षित है और यदि साधन सिद्ध है तो साधन भी अनेक है :-- उच्चावच दुरूह एवं दुर्गम ! संसार में आकृमि देव - दानव सभी को सुख अभीष्ट है और सुख भी वह जो शाश्वत चिरंतन एवं निरतिशय हो ! *निरतिशय का अर्थ है - सबसे बढ़कर ! जिससे अतिशय और कोई दूसरा न हो ! जो ना कभी कम हो , ना कभी दूर हटे और ना कभी खो जाय अर्थात जो सदा एकरस बना रहे !* पर पुनः *प्रश्न यह उठता है कि :-* ऐसा सुख क्या इस विनाशी और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जगत में अथवा किसी भी सांसारिक पदार्थों में हो सकता है ! *इसका उत्तर एक ही होगा कि:-* इस भौतिक जगत में ऐसा सुख संभव नहीं है जो कुछ है सुख का आभास है , सुख की प्रतीति मात्र है *भगवान कपिलदेव ने* कहा है :-
*कुत्रापि को$पि सुखीति*
(सांख्यदर्शन)
*अर्थात :-* क्या कहीं भी इस विश्व में कोई पूर्ण सुखी व्यक्ति है ! ऐसा प्रश्न करके वे पुनः इसका समाधान भी करते हुए विवेचन करते हैं :--
*तदपि दु:खशवलमिति दु:खपक्षे नि:क्षिपन्ते विवेचका:*
(सांख्यदर्शन)
*अर्थात :-* सभी सुखियों के सुख भी दु:खमिश्रित है अतः विवेचको की दृष्टि से वे सभी एक प्रकार के दुख ही है ! अतः सिद्ध है कि :-
*न चेन्द्रस्य सुखं किंचिन्न न सुखं चक्रवर्तिन: !*
*सुखमस्ति विरक्तस्य मुनेरेकान्तजीविन: !!*
(पाद्मीय भागवत माहा०)
*अर्थात :-* इंद्र अथवा चक्रवर्ती राजा को भी कुछ सुख नहीं है , सुख तो एकमात्र एकांतवासी , वैराग्यवान मुनि को ही है ! हां यदि कहीं सुख की अक्षय सत्ता है तो वह हो है *श्री भगवान के चरणों की शरण में* गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं :--
*सुखी मीन जे नीर अगाधा !*
*जिमि हरि सरन न एकउ बाधा !!*
(मानस)
अब क्या हुआ इंद्र भी सुखी नहीं , चक्रवर्ती भी सुखी नहीं ! हां *मुनेरेकान्तजीविन:* --- एकांतवासी अर्थात एकमात्र परमेश्वर का सहारा लेने वाले मुनि ही सुखी है !अनादिकाल से अर्थात जब से सृष्टि है , गगन - पवन है तभी से प्राणी सुख की खोज में भटक रहा है ! *विचारणीय इतना ही है कि* खोज सही जगह हो रही है या अनुचित जगह ! सही जगह प्राप्त हो चुकी है तब तो सुख ही नहीं परमसुख प्राप्त हो जाएगा और यदि अनुचित जगह खोज की जा रही है तो उसकी प्राप्ति असंभव होगी ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय *कबीरदास जी* ने बताया है ! सुख की कामना के पीछे भटकने वाले ऐसे लोगों के लिए ही उन्होंने लिखा है :--
*कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढे बन माहि !*
*ऐसे घट घट राम है दुनिया देखे नाहिं !!*
(कबीर ग्रन्थावली)
इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है सुख तो है पर जहां है वहां खोजा नहीं और जहां सुख नहीं है वहां खोज की जा रही है ! वस्तुतः अन्वेषक को ज्ञान होना चाहिए कि उसके एक मात्र साधन श्री भगवान है और यह ज्ञान *भगवत्कृपा* से ही संभव है ! इस प्रकार साध्य स्थिर हो जाने पर अपनी स्थिति और शक्ति के अनुसार उसकी प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयत्न का नाम ही *साधना* है ! साधना करने वाला व्यक्ति *भगवत्कृपा* के आश्रित होकर ही साधना में सफल हो सकता है !