भारतीय वांग्मय में सर्वत्र *भगवत्कृपा* के दर्शन होते हैं ! वेद , उपनिषद , पुराणों में *भगवत्कृपा* के दर्शन सहज ही हो जाते हैं ! *श्रीमद्भागवत महापुराण* तो साक्षात *कृपावतार* भगवान श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है ! श्रीमद्भागवत जी में *भगवत्कृपा* अनेक रूपों में भक्तों का उद्धार करती है ! भागवत जी में *भगवत्कृपा* की कुछ झलकियाँ देख ली जायं ! श्रीमद्भागवत में भगवान के महाकारुणिक *अदभ्रदय:* तथा *घृणार्दित:* आदि अनेक विशेषण प्राप्त होते हैं ! इसमें *भगवत्कृपा* का स्मरण सर्वत्र ही बड़ा मार्मिक है ! वे अपने भक्तों को अपनाने तथा सम्पत्यादि दान के लिए ही आप्तकाम होते हुए भी उनके द्वारा भक्तिपूर्वक समर्पित जल-तुलसीदल आदि ग्रहण करते हैं :--
*नैवात्मन: प्रभुरयं निजलाभपूर्णो ,*
*मानं जनादविदुष: करुणो वृणीते !*
*यद् यज्जनो भगवते विदधीत मानं ,*
*तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्री: !!*
(श्रीमद्भा०)
भगवान तो आत्मलाभ से ही पूर्ण हैं , वे क्षुद्र पुरुषों से पूजा की इच्छा नहीं रखते ! वे केवल करुणावश ही अपने भक्तों द्वारा दी हुई परिचर्या को स्वीकार कर लेते हैं ;- क्योंकि जिस प्रकार अपने मुख की शोभा प्रतिबिम्ब को भी सुशोभित करती है , उसी प्रकार भक्त भगवान के प्रति जो जो मान प्रदर्शित करता है वह भक्त उसे ही प्राप्त होता है ! श्रीमद्भागवत में *कृपा* के और पर्यायों की तुलना में *अनुग्रह* शब्द का प्रयोग अधिक है ! *ध्रुव* की दृष्टि में भगवान का हृदय अपने भक्तों के लिए लाक्षा या नवनीत के द्रवित होने वाला या वास्रा (वाश्रा) अर्थात् तुरंत ब्यायी गाय के समान स्रवणशील वात्सल्य *कृपाकातर* कहा गया है ! यथा :--
*अप्येवमर्य भगवान परिपाति दीनान् ,*
*वा (स्रे) श्रेव वत्सकमनुग्रहकातरो$स्मान् !!*
(श्रीमद्भा०)
श्रीमद्भागवत में संत मिलन , सत्कर्मानुष्ठान , भगवद्दर्शन आदि को भी *भगवत्कृपा मूलक* कहा गया है ! यथा:--
*अनुग्रहाय भद्रं ऩव एवं मे दर्शनं कृतम्*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* इस समय मैं तुम पर *कृपा* करने के लिए ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्श दिया है ! ब्रह्मा जी पर जब *भगवत्कृपा* हुई तो उनको साक्षात भगवान का दर्शन हुआ और भगवान ने उनसे कहा :---
*------------------- आत्मा मे दर्शितो$बहि: !!*
*यच्चकथार्गंमत्स्तोत्रं मत्कथाभ्युदयांकितम् !*
*यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रह: !!*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात्:-* भगवान ब्रह्मा जी से कहते हैं :- हे तात ! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है वह *मेरी कृपा का ही फल है !* ऐसे अनेकों प्रसंग आपको पढ़ने को मिलेंगे जिसमें श्री भागवत जी में *भगवत्कृपा* के स्पष्ट दर्शन मिलता रहेगा |