आध्यात्मिक क्षेत्र में *भगवत्कृपा* की वर्षा को ही *शक्तिपात* कहा गया है वह *शक्तिपात* सब पर समान रूप से होता है ! तांत्रिक आचार्यों के मत से जीव की स्वरूप - स्थिति के उपाय का नाम ही *शक्तिपात* है ! भगवदनुग्रह या प
*भगवत्कृपा* इसी का नामांतर है ! इसे छोड़कर शुद्ध पौरुष प्रयत्न से भगवत्प्राप्ति संभव नहीं है ! वस्तुतः भगवन्मुखी वृत्ति के मूल में सर्वत्र *भगवत्कृपा* माननी ही पड़ेगी ! *शक्तिपात या भगवत्कृपा* में कृपणता नहीं होती ! सक्रम या अक्रम भाव से सब पर *भगवत्कृपा* अवश्यमेव होती है !
*जीव मात्र पर बरसती भगवत्कृपा महान !*
*अनुभव जो न कर सके वह मूरख नादान !!*
*कृपा कृपण हैं प्रभु नहीं देेते दोनों हाथ !*
*इसीलिए कहते सभी उनको दीनानाथ !!*
(स्वरचित)
*शक्तिपात अथवा श्री भगवान की कृपा* के बिना कोई जीव पूर्णत्व लाभ नहीं कर सकता ! यहां तक कि पूर्णत्व के मार्ग में भी प्रवेश नहीं कर सकता ! *शक्तिपात* का तारतम्य जीव के आधार (धारणा शक्ति) के भेद से होता है , परंतु यह भी सत्य है कि जीव चाहे कितने ही निम्न अधिकार का हो और कितना ही भोगाकांक्षायुक्त हो एक बार *शक्तिपात* होने पर वह परम पद को अवश्य प्राप्त हो जाएगा ! भोगाकांक्षादि अन्तराय से रहने से उसकी गति में विलंब होगा ! नहीं तो शीघ्रातिशीघ्र - यहां तक कि क्षणमात्र में भा कार्य हो सकता है ! *शक्तिपात* के समय योग्यता का विचार नहीं होता परंतु स्वभावत: योग्यता के अनुसार ही शक्तिपात की मात्रा निर्दिष्ट होती है ! वह मात्रा कुछ भी हो भगवच्छक्ति की ऐसी ही महिमा है ! इसका एक बार पात होने पर जीव को भगवद्धाम में पहुंचे बिना शांत नहीं होती ! इसमें कोई संदेह नहीं है निश्चय ही *दस्यु रत्नाकर से महर्षि बाल्मीकि* पद पर प्रतिष्ठित होने में उस क्षेत्र चमत्कारी *शक्तिपात या भगवत्कृपा* का ही हाथ है ! इससे बढ़कर *भगवत्कृपा* की उदारता का प्रमाण और क्या हो सकता है :--
*शक्तिपात समये विचारणं ,*
*प्राप्तमीश न करोषि कर्हिचित् !*
*अद्य मां प्रति किमागतं यत: ,*
*स्वप्रकाशनविधौ विलम्बसे !!*
उक्त स्तुति के क्रम में कहा गया है कि भगवान जीव पर कृपा करने के समय पात्र अपात्र का भी विचार नहीं करते !
*स्थावरान्तमपि देवस्य स्वरूपोन्मीलनात्मिका !*
*शक्ति: पतन्ती सापेक्षा न क्वापि ------- !!*
यहाँ *स्थावरान्त* पद से सूचित होता है कि अत्यंत अयोग्य में भी *शक्तिपात* होता है उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि *भगवत्कृपा* ही सर्वोपरि है जो बिना भेदभाव के सब के ऊपर होती है !