यह संसार का नियम है कि जो जैसा बीज बोएगा वैसा ही काटने को पाएगा ! इसी बात को मानस में बाबा जी ने लिखा है :---
*करम प्रधान विश्व रचि राखा !*
*जो जस करइ सो तस फल चाखा !!*
( मानस )
जो जैसा कर्म करता है उसको उसी प्रकार का फल मिलता है ! अपने कर्म के स्वाभाविक और अनिवार्य परिणामों से छूटने का कोई उपाय नहीं है ! हां ! केवल *भगवत्कृपा* में यह शक्ति है कि वह इस विश्वव्यापी न्याय के कार्य में हस्तक्षेप करके उसके कर्म को बदल सके ! जैसा कि गोस्वामी जी ने लिखा है :--
*भाविहुँ मेटि सकहिं त्रिपुरारी*
( मानस )
विश्व प्रकृति के नियन्तृत्व का अतिक्रमण करने का अधिकार पूर्ण स्वतंत्र कृपा को की है , क्योंकि यह प्रकृति की परिधि के बाहर से ही कार्य करती है ! इसका एकाधिपत्य इसकी सर्वसमावेशकारिणी परात्परता में ही निहित है ! इसकी स्वतंत्रता का तात्पर्य उच्छ्रंखल स्वेच्छाचरिता नहीं है ! वरन यह प्रेम की सर्ववेत्ता प्रज्ञा की एकाधिपत्य स्वतंत्रता है ! वैश्व न्याय तो इस प्रेम का बहिर्गत अंश अर्थात अस्थिर जगत व्यापार में यांत्रिक किया मात्र है ! *भगवत्कृपा* कैसे प्राप्त होती है ? कर्म को भगवान कैसे मिटा देते हैं ? इसके लिए समझने का प्रयास कीजिए ! *जैसे:-* कोई मनुष्य सीढ़ी से नीचे उतर रहा है ! एक स्थानच्युत ईंट उसके सिर पर गिरने वाली ही है ! आकर्षण के नियमानुसार वह ईंट गिरेगी और उसके सिरको क्षति पहुंचाएगी भी ! किंतु आश्चर्य ! अचानक ही उसके पीछे से एक हाथ आगे बढ़ता है और गिरती हुई ईंट को पकड़ लेता है , और वह मनुष्य बच जाता है ! *उसके पीछे से किसी व्यक्ति का इस प्रकार हस्तक्षेप करना ही भगवत्कृपा का हस्तक्षेप है* जो प्रकृति के कठोर नियंतृत्व को उड़ा देता है !
*छोड़ आसरा जगत का , कृपा पे कर विश्वास !*
*चरण शरण में बैठ जा , परम प्रभू केू पास !!*
*परम प्रभू के पास , त्याग दे चिन्ता सारी !*
*कर श्रद्धा - विश्वास , कृपा करिहहिं असुरारी !!*
*कह "अर्जुन आचार्य" विघ्न बाधा का होगा नाश !*
*बस छोड़ आसरा जगत का , कृपा पे कर विश्वास !!*
(स्वरचित)
हमें एकमात्र *भगवत्कृपा* के लिए ही प्रार्थना करनी चाहिए ! एक बार जब हमने अपने आपको कृपा के प्रति समर्पित कर दिया तब जो कुछ वह निर्णय करें उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए , और जो कुछ हम पर घटित हो , चाहे हमारी मानसिक धारणा के अनुसार शुभ या अशुभ , ईष्ट या अनिष्ट कुछ भी क्यों ना हो उन सब में कृपा के पवित्र संकल्प को ही अनुभव करने की चेष्टा करनी चाहिए ! हर वस्तु में , हर परिस्थिति में *भगवत्कृपा* का पूर्ण सामंजस्य एवं परिणाम मान लेना चाहिए ! इससे वह *(भगवत्कृपा)* हमें अधिक सचेतन , बलशाली और सत्यशील बनाने में सहयोग करती है *भगवत्कृपा* ! कभी-कभी *भगवत्कृपा* पहुंचने में विलंब हो जाता है , ऐसी परिस्थिति विश्वास पूर्ण अनंत धैर्य के साथ प्रतीक्षा करनी चाहिए तथा मन य प्राण को विचलित नहीं होने देना चाहिए ! धैर्य और अध्यवसाय होने पर सभी प्रार्थनाएं सफल हो जाती हैं ! भगवान की कृपा शक्ति , संकल्प शक्ति और क्रिया पर पूर्ण श्रद्धा बनाए रखने से सभी कार्य पूर्ण हो जाते हैं ! इस युक्तवृत्ति से एक क्षण के लिए भी गिर जाने पर कृपा कार्य में रूकावट या देर हो सकती है ! *भगवत्कृपा* में संपूर्ण और अधिक विश्वास सर्वार्थ सिद्धि के लिए अचूक उपाय है !