भगवान का प्रत्येक विधान मंगलमय होता है ! भगवान ने मनुष्य के हाथों कर्मों का अधिकार दे रखा है जो जैसा कर्म करता है उस पर उसी प्रकार की *भगवतकृपा* होती है ! कुछ लोग भगवान को अन्यायकारी अवश्य कह देते हैं परंतु उन लोगों को यह बात नहीं पता होती कि भगवान कभी किसी को कष्ट नहीं दे सकते ! भक्तों के सामने भगवान जो दुखों का रूप प्रकट करते हैं वह केवल उनके कल्याण के लिए ही करते हैं ! यदि केवल सुख में ही भगवान का रूप दीख पड़ता तो क्या दुख में उनका अभाव है ? यदि सुख में उनकी व्यापकता है तो दुख में भी है ! ऐसी कोई भी अवस्था या कोई भी पदार्थ नहीं है जिसमें भगवान ना हो :--
*देश काल दिसि बिदिसिहुँ माही !*
*कहहुँ सो कहां जहां प्रभु नाही !!*
(मानस)
भगवान तो सर्वत्र हैं और सब पर समान रूप से *भगवतकृपा* करने वाले हैं ! इसी बात को पूर्ण रूप से प्रकट करने के लिए भगवान अपने भक्तों के सामने दोनों स्वरूप प्रकट करते हैं ! जब भक्त इस पहेली को समझ लेता है तब वह सब तरह से और सब ओर से भगवान को पहचान लेता है ! साधारण लोग एक तरफ से देखते हैं ! इसी से वे सुख की मूर्ति को देख कर हंसते हैं और दुख की मूर्ति देखकर कांप उठते हैं परंतु जो भक्त हैं वे दोनों में ही भगवान को देख पाते हैं ! इसी से उनमें ना तो दुख में द्वेष है और ना सुख में अधिक अनुराग ! दाहिना और बाँयां दोनों उसी के तो हाथ है ! भक्त किसी भी अवस्था में इस ध्रुव सत्य से अपनी दृष्टि नहीं हटाते बल्कि वे तो दूसरे लोगों को दुख से घबराया हुआ जानकर भगवान से उल्टी यह प्रार्थना करते हैं:-
*न कामये$हं गतिमीश्वरात्परा ,*
*मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा !*
*आर्तिं प्रपद्ये$खिलदेहभाजा-*
*मन्त:स्थितो येन भवयन्त्यदु:खा: !!*
(श्री म०भा०/९/२१/१२)
भक्त लोक कल्याण की कामना से कहता है :- हे नाथ ! मैं (आप) परमेश्वर से अणमादि आठ सिद्धियों से युक्त गति या मुक्ति को नहीं चाहता मेरी यही प्रार्थना है कि मैं ही सब प्राणियों के अंतः करण में स्थित होकर दुख भोग करूं ! जिससे उन सब का दुख दूर हो जाय ! इतना कष्ट पाने के बाद भी परम भक्त पहलाद ने कातर कंठ से कहा था:--
*दीनबन्धु दीनानाथ हमको किया सनाथ ,*
*आपके गुणानुवाद निशिदिन गाऊँगा !*
*रूप माधुरी का ध्यान करत ही आठों याम ,*
*कृपा के समुद्र में मैं गोते भी लगाऊँगा !!*
*पर प्रभु एक बात ! विषय वासना में लिप्त ,*
*असुर बन्धुओं को मैं छोड़ नहीं पाऊँगा !!*
*आपकी कृपा से यदि मुक्त हुआ आज जो मैं ,*
*निश्चित है कि जग में मैं पातकी कहाऊँगा !!*
(स्वरचित)
यह है भगवत भक्तों की वाणी , जो अपने साथ-साथ सबका कल्याण करने के लिए संसार भर का दुख अपने मस्तक पर उठाने को सदैव तत्पर रहती है ! दीन दुखियों का उद्धार हुए बिना अकेले अपना उद्धार भक्त कभी भी नहीं करना चाहता ! कष्ट देने वाले के लिए भी भगवान से क्षमा भक्त ही मांग सकते हैं ! उन्हें अपने कष्टों की कभी परवाह नहीं होती ! परवाह भी क्यों हो ? उन्हें तो कष्टों की भीषण मूर्ति के अंदर भी प्रत्यक्ष *भगवत्कृपा* दिखाई पड़ती है ! प्रत्येक रूप में भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन होता है ! भक्त तो सब और से अपना सारा अपनापन उन्हें सौंप कर उसकी कृपासुधा की अनंत और शीतल धारा में अवगाहन कर कृतार्थ हो चुके होते हैं ! और क्षण क्षण में उन्हें *भगवत्कृपा* के दिव्य दर्शन होते हैं ! इसी से वे समस्त सुख और दुख भार को केवल *भगवत्प्रसाद* समझकर सानंद ग्रहण करते हैं ! कोई भी स्थिति उन्हें विचलित नहीं कर सकती है , उस परम लाभ को पाकर उसी में नमन करते हुए प्रेम के परमानंद रहते हैं ! भगवान ने स्वयं कहा है
*यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: !*
*यन्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते !!*
(गीता/६/२२)
*अर्थात:-* ( भक्त ) परमात्मा की प्राप्तिरूप लाभ को पाकर उससे अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं मानता और *भगवत्प्राप्ति* रूप अवस्था में स्थित (वह) भक्त बड़े से बड़े दुख से भी चलायमान नहीं होता , क्योंकि उसे प्रत्येक रूप में *भगवत्कृपा* का दर्शन होता है ! वह मानता है कि *भगवत्कृपा* के बिना संसार में कुछ भी नहीं है |