जैसा जिसका भाव पता है उसको वैसी ही *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है ! जो भगवान भक्तों के लिए *कृपामय* होते हैं वही असुरों के लिए कालरूप हुये हैं ! जिसका जैसा भाव होता है भगवान उसको उसी रूप में दर्शन देते हैं ! जनकपुर की स्वयंवर सभा में सबने अपने अपने मति एवं भाव के अनुसार भगवान का दर्शन किया भक्तों ने उन्हें भगवान माना तो असुरों ने उन्हें काल के समान देखा :--
*रहे असुर छल छोनिप बेसा !*
*तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा !!*
( मानस )
वही उत्तरकांड में राघवेंद्र सरकार स्वयं कह रहे हैं :--
*काल रूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता !*
*सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता !!*
( मानस)
इस प्रकार शास्त्रों के अनुसार निर्गुण भगवान उपासक भक्तों के अनुग्रहार्थ ही सगुण साकार एवं अनुग्रह रूप बनते हैं :--
*अगुन अरूप अलख अज जोई !*
*भगत प्रेम बस सगुन सो होई !!*
(मानस)
यद्यपि भक्ति , तप आदि साधनों का एवं उनके भेदों का भी अंत नहीं है , पर वेद - पुराणों के अनुसार सत्विक भक्तियुक्त साधन ही आशुतोष प्रभु को तुष्ट करने एवं *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए उपयुक्त बताए गए हैं ! यथार्थ विधि वचन भी एतादृश हैं ! *वाराहपुराण , शिवमहापुराण , कुमारसंभव , मानस , मनुसमृति* आदि ग्रंथों में *भगवत्कृपा* के दर्शन होते हैं ! *कृपा* का एक रूप है *करुणा* समस्त काव्यों का बीज बाल्मीकि रामायण है :-
*पठ रामायणं व्यास काव्यबीजं सनातनम्*
(वृहद्धर्मपुराण)
और बाल्मीकि जी की इस कालजई रचना रामायण का बीज है :-- *करुणा*
यद्यपि क्रौंच पक्षी के वध पर वाल्मीकि जी के हृदय में शोक उत्पन्न हुआ परंतु यह शोक भी करुणा का रूप है ! वाल्मीकि रामायण की रचना का आधार बनी करुणा एक रस है !
*श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोक:*
(रघुवंश)
और भी देखा जाय तो :--
*सो$नुव्याहरणाद् भूय: शोक: श्लोकत्वमागत:*
(वाल्मीकि रामायण)
*उपर्युक्त बचनों में शोक भी करूणा का ही पर्याय है ! निमित्त भेद से यही पुनः श्रृंगार , हास्य , रौद्र वीर एवं अद्भुत आदि रसो में रूपांतरित या विवर्तित होता है ! जैसे एक जल ही कभी आवर्त , कभी बुदबुद , कभी तरंग आदि रुपों में परिणत या रूपांतरित होता है उसी प्रकार करुणा रूपी रस समय-समय पर अनेक रूपों में विभक्त होता है ! यथा:--
*एको रस: करुण एव निमित्तभेदाद् -*
*भिन्न: पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्तान् !*
*आवर्तबुद्बुदतरंगमयान् विकारा -*
*नम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् !!*
(उत्तररामचरित)
इस प्रकार जहां *प्रभु मूरत कृपामयी है* कि बात है वही काव्यशास्त्र बीज *करुणामयी भागवती शक्ति* ही भगवान है और :--
*रसेषु करुणो रस:*
यह दीखने लगता है ! और फिर :--
*कृपैव प्रभुतां गता*
इस प्रकार *भगवत्कृपा* के दर्शन हमको होते रहते हैं ! धर्मग्रंथों / वेद - पुराणों में किस प्रकार *भगवत्कृपा* के दर्शन होते हैं यह बताने का प्रयास आगे के भागों में *भगवत्कृपा* से ही संभव हो सकेगा !