श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि आत्ममार्जन करके ही *भगवत्कृपा* को प्रा्प्त किया जा सकता है ! यथा :--
*यथा यथा$$त्मा परिमृज्यते$सौ ,*
*मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानै: !*
*तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं ,*
*चक्षुर्यथैवांजनसम्प्रयुक्तम् !!*
(श्रीमद्भा०)
इसके अनुसार तपस्या या भगवत्प्रेम के द्वारा आत्ममार्जन से ही सूक्ष्म तत्वदर्शनक्षमता प्राप्ति निर्दिष्ट है ! तथा भगवच्चरणों की प्राप्ति भी *भगवत्कृपा* से ही संभव बतलाई गई है ! यथा:--
*सो$हं तवांघ्र्युपगतो$स्म्यसतां दुरापं ,*
*तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये !*
*पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्ग-*
*स्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मति: स्यात् !!*
(श्रीमद्भा०)
*अर्थात :-* हे ईश ! मैं आपकी चरण शरण में आया हूँ आपकी शरण असत्पुरुषों के लिए सर्वथा दुष्प्राप्य है ! मुझ अधम को उनका दर्शन हुआ यह मैं *आपकी ही कृपा* का फल समझता हूं ! श्रीमद्भागवत महापुराण में *भगवत्कृपा* के कितने रहस्य हैं , कितने रूपों में *भगवत्कृपा* मिल रही है उसका संपूर्ण वर्णन कर पाना संभव नहीं है ! कहीं-कहीं तो इस महान ग्रंथ में *भगवतकृपा* के लिए होड़ भी देखने को मिलती है ! भारतीय साहित्यों में *भगवत्कृपा* के दृष्टान्त , रहस्य , महत्व एवं अनुभव के कथानक सर्वत्र प्राप्त होते हैं , जिसमें से श्रीमद्भागवत महापुराण तो *भगवत्कृपा* से ही लिखा गया है ! जब तक जीव पर *भगवत्कृपा* नहीं होती तब तक उसके जीवन में संतोष नहीं आता ! भगवान के अंशावतार *भगवान वेदव्यास जी* ने वेदों का विन्यास करके सत्रह पुराणों की रचना की परंतु उन पर *भगवत्कृपा* नहीं हुई अर्थात् उनको संतोष नहीं हुआ ! असंतोष से भरे व्यास जी को नारद जी ने संतोष प्राप्त करने का उपाय बताया ! यथा :--
*भगवन्त कथा बहु बार लिखेव ,*
*दस सात पुरान का लेख बनायो !*
*नहिं शान्ति मिली मन के भीतर ,*
*तब दुविधा नारद पाहिं बतायो !!*
*नारद कहें व्यास जी बात सुनो ,*
*नहिं कृष्ण की लीला तुम कछु गायो !*
*भगवन्त कृपा न मिली यहि ते ,*
*मन माहिं अशान्ति तुम्हारो छायो !!*
(स्वरचित)
नारद की बात सुनकर वेदव्यास जी महाराज ने लीलाबिहारी , लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया और श्रीकृष्ण लीलामृत अर्थात् श्रीमद्भागवत महापुराण लिख डाला ! यथा :--
*सुन नारद की बात को करि माधव का ध्यान !*
*वेदव्यास जी लिख दिये श्रीभागवत पुरान !!*
(स्वरचित)
श्रीमद्भागवत महापुराण लिखते समय व्यास जी पर ऐसी *भगवत्कृपा* हुई कि मात्र श्रीकृष्ण चरित्र ही नहीं बल्कि सभी पुराणों का सार लिखते चले गये ! अथाह ज्ञान का भण्डार है श्रीमद्भागवत महापुराण ! इस महान ग्रन्थ पर ऐसी *भगवत्कृपा* है कि इसका एक एक अक्षर अनन्त , अक्षय पुण्य प्रदान करने वाला है :--
*नित्यं भागवतं यस्तु पुराणं पठते नर: !*
*प्रत्यक्षरं भवेत्तस्य कपिलादानजं फलम् !!*
*श्लोकार्धं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम् !*
*पठते श्रृणुयाद् यस्तु गो सहस्रफलं लभेत् !!*
*य: पठेत् प्रयतो नित्यं श्लोकं भागवतं सुत !*
*अष्टादशपुराणानां फलमाप्नोति मानव: !!*
*अर्थात्:-* विशेष *भगवत्कृपा* के रूप में मनुष्य को श्रीमद्भागवत महापुराण प्राप्त हुआ है ! यह *विशेष भगवत्कृपा* ही है कि जो मनुष्य प्रतिदिन भागवत पुराण का पाठ करता है उसे एक एक अक्षर के उच्चारण के साथ कपिला गौ दान देने का पुण्य मिलता है ! जो प्रतिदिन भागवत के आधे या चौथाई श्लोक का पाठ करता है या सुनता है उसे एक हजार गोदान का फल मिलता है ! जो प्रतिदिन पवित्र चित्त होकर भागवत के एक श्लोक का पाठ करता है वह मनुष्य अठारह पुराणों के पाठ का फल पा लेता ! यह *विशेष भगवत्कृपा* नहीं तो और क्या है ? परंतु हम अपने धर्मग्रन्थों का अवलोकन ही नहीं करना चाहते ! कुछ न करके यदि अपने आर्षग्रन्थों का अध्ययन ही कर लिया जाय तो *भगवत्कृपा* प्राप्त होती रहेगी !