*भगवत्कृपा* तो जगत में बिना भेदभाव के निरंतर सचराचर प्राणिमात्र पर बरसती ही रहती है , परंतु आर्त्त होकर उसका अनुसंधान करके आनंद रससिन्धु में मगन रहने वाले इस जगत में विरले ही है ! अनादिकाल से मोहनिद्रा में प्रसुप्त जीव को *कृपामयी श्रीजी* की प्रेरणा से द्रवित-चित्त प्रभु ने मानव देह प्रदान करने का संकल्प किया ! यही है *भगवत्कृपा* की अवतरण भूमि :---
*कबहुँक करि करुना नर देही !*
*देत ईस बिनु हेतु सनेही !!*
(मानस)
यह परंपरा आद्यावधि अक्षुण्ण ही है :---
*एवं निसर्गसुहृदि त्वयि सर्वजन्तो: ,*
*स्वामिन्न चित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम् !!*
(आलवन्दारस्तोत्र)
*अर्थात :-* प्रभो ! इस प्रकार नैसर्गिक स्वभाव से ही सर्वश्रेष्ठ आपका सभी जीवों पर *अकारण कृपा करना* कोई आश्चर्य की बात नहीं ! स्वामिन् ! आप तो इसी प्रकार आश्रित जनों पर सदैव वात्सल्य रखते ही आये हैं ! *श्रीजी भगवत्कृपा की साकार प्राणमयी प्रतिमा है उनका कृपापूर्ण भाव भक्त और भगवान दोनों को आह्लादित कर देता है !* इसलिए वह *आह्लादिनी महाशक्ति* कहलाती हैं ! वे करुणानिधान के *कृपाधन* को अखिल विश्व के जीवो के लिए उदार हृदय से सर्वदा लुटाते रहना ही चाहती हैं ! *कृपारूपिणी कल्याणी श्री जानकी जी कारुण्यपूर्ण हृदय से निरंतर भगवत्कृपारस वितरण करते हुए* कभी अघाती नहीं है !
*जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती !*
( मानस )
जब प्रभु *कृपा* करते हैं तब *कृपामूर्ति श्रीजी* चाहती हैं कि प्रभु इतनी ही *कृपा* करके क्यों रह गए ? उनके पास कमी क्या है , वह अधिक कृपा क्यों नहीं करते ? श्रीजी की भावना देखकर जब करुणानिधान अधिक *कृपा* करते हैं तब कृपा स्वयं चाहती है कि प्राणनाथ कुछ और उदारता बरतते तो मैं सब को कृतार्थ कर देती ! यह *भगवत्कृपा* का परम रमणीय स्वरूप है ! यह जीव मुझको प्राप्त हो जाय इसके लिए भी प्रयत्न वे स्वयं ही करते हैं ! भगवान ने स्वयं कहा है:--
*तेषामहं समुद्धर्ता मृत्यु संसारसागरात् !*
*भवामि नचिरात्पार्थं मय्यावेशितचेतसाम् !!*
(श्रीमद्भगवद्गीता)
*अर्थात:-* हे अर्जुन ! उन मुझमे चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं ! परंतु माया के प्रबल साम्राज्य में बड़े-बड़े धीर वीर गिर जाते हैं तब दंड देकर कभी-कभी प्रभु उनकी शुद्धि भी करना चाहते हैं ! ऐसे अवसर पर श्री किशोरी जी प्रभु को पुनः पुनः उन पर कृपा करने की प्रेरणा देती रहती है:--
*दु:खार्णवे निमग्नानां दृष्ट्वा जीवानहैतुक: !*
*करुणासिन्धुरामस्य जायते को$प्यनुग्रह: !!*
*पुण्यं भवति चाज्ञातं रामस्यानुग्रहेण हि !!*
(श्रीरामप्राप्तिपद्धति)
*अर्थात:-* दुख सागर में डूबते हुए जीवो को देखकर करुणा सिंधु श्रीराम के हृदय में अकारण ही *कृपा* उमड़ती है ! सहज अनुग्रह के फलस्वरूप उनसे कोई अज्ञात पुण्य अवश्य ही हो जाता है , जिसको निमित्त बनाकर प्रभु उनका उद्धार कर देते हैं ! जिनको धर्म आचरण एवं योगाभ्यास तक किञ्चितमात्र अधिकार नहीं है तथा तत्वज्ञान प्राप्ति से भी जो वंचित ही है *वे तृणादिक भी प्रभु की क्रीड़ाभूमि श्री अवध की रज से संबंध रखने मात्र से समस्त बंधनों से मुक्त हो परम पद साकेत धाम को प्राप्त हो गए !* धन्य है *भगवत्कृपा* ! कृपाल प्रभु कहते हैं कि :- जो भक्त प्रेम से मेरा भजन करते हैं उनसे मेरा इतना अभेदभाव हो जाता है कि वे मेरे आत्मा में रमण करते हैं और मैं उनके ! *यह है करुणानिधान की भगवत्कृपा !*