*भगवत्कृपा* बड़ी रहस्यमई है ! *भगवत्कृपा* भक्तिवेदांत का प्रमुख अंग है ! भगवदनुकम्पा , भगवदनुग्रह आदि इसके अनेक नाम है ! *भगवत्कृपा* की अमृतामयी वृष्टि जब तक भक्तों के भाव एवं हृदय जगत में नहीं होती तब तक भीतर बाहर सर्वत्र व्याप्त भगवान भी उसके लिए नहीं के समान होते हैं , क्योंकि भगवान सर्वप्रथम भाव अथवा भावना में ही अस्तित्व ग्रहण करते हैं ! भाव ही भगवान की सगुण - साकार एवं सापेक्षता का मुख्य कारण है ! *श्रीरामचरितमानस* में भगवान शंकर का एक ऐसा ही दिव्य प्रेम भाव भगवान के सर्वत्र व्यापक होने की घोषणा करता है ! यदि उन्हें प्रकट देखना है तो पहले अपने हृदय में उसी प्रेमभाव को जगाना होगा जिस के वशीभूत हो भगवान सर्वत्र प्रकट हो जाते हैं ! *गोस्वामी जी* ने लिखा है :--
*हरि व्यापक सर्वत्र समाना !*
*प्रेम से प्रगट होंहिं मैं जाना !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* भगवान कण-कण में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं , परंतु उनको देखने के लिए , उनका दर्शन करने के लिए हृदय में प्रेम को प्रकटाना होगा ! क्योंकि ईश्वर सदैव प्रेम से ही प्रकट होता है ! यही नहीं यदि कोई यह कहे कि हमने तो ईश्वर को नहीं देखा वह कहां है ? तो तुलसीदास जी जवाब देते हैं :--
*देश काल दिसि विदिसिहुं माहीं !*
*कहहुं सो कहां जहां प्रभु नाहीं !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* तुलसीदास जी के माध्यम से भगवान शिव कह रहे हैं कि कोई हमें वह स्थान बता दे जहां पर ईश्वर ना हों ! कोई भी देश , कोई भी समय , कोई भी दिशा भगवान से रहित नहीं है ! जब भगवान सब जगह है तो भगवान प्रकट क्यों नहीं होते ? तो भगवान शिव ने कहा:--
*अग जगमय सब रहित विरागी !*
*प्रेम ते प्रभु प्रगटहिं जिमि आगी !!*
(मानस)
*अर्थात:-* भगवान को प्रकट करने के लिए प्रेम की उपासना करनी होगी ! बिना प्रेम के ईश्वर का प्राकट्य नहीं होता है ! जैसे अरणी मंथन करने से अग्नि प्रकट हो जाती है वैसे अपने हृदय में प्रेम का मंथन करने से ईश्वर का प्राकट्य होता है और जब ईश्वर का प्राकट्य होता है तो *भगवत्कृपा* का वर्षण स्वयं होने लगता है !
प्रत्येक मनुष्य की भावात्मक तरलता उसे बलपूर्वक काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद एवं मत्सर आदि को प्रवृत्तियों से बाहर ले जाती है किंतु वही भावात्मक तरलता उन्हें भगवान की शरण में तब तक नहीं ले जा पाती जब तक वह स्वयं *भगवत्कृपा* से स्वच्छ , पवित्र एवं सत्त्वगुणी नहीं बन जाता ! साथ ही हम यह भी जानते हैं कि चराचर प्राणियों का कारण कल्याण करने के लिए अमृतस्वरूपा *भगवत्कृपा* उन पर अविराम बरसती ही रहती है , फिर भी उन का भाव क्षेत्र परिष्कृत एवं संस्कृत नहीं होता ! जैसे पानी में भी मछली प्यासी ही रह जाती है उसी तरह वे अपने जीवन में भगवान की और उनकी *अजस्रकृपा* की अनुभूति नहीं कर पाते ! भक्तिसिद्धांत के अनुसार अपने जीवन में निरंतर गतिमान रहने वाली *भगवत्कृपा* की श्रद्धा - विश्वास से युक्त साधना द्वारा अनुभूति हो जाना ही भगवत्प्राप्ति किंवा भगवत्साक्षात्कार हेतु अर्थात कारण है !
*योनि चौरासी मध्य मानव की श्रेष्ठ योनि ,*
*पाके भी जो भगवत्कृपा न जान पाते हैं !*
*मातु पिता भाई बन्धु सुन्दर परिवार पाके ,*
*प्रभु की कृपा का आभार न जताते हैं !*
*बात बात पर भगवान का ही दोष देते ,*
*अपने कुकृत्यों को जो देख नहीं पाते हैं !*
*ऐसे ही अनेक मूढ़मति औ कृतघ्न जीव ,*
*भगवत्कृपा का आनन्द नहीं पाते हैं !!*
(स्वरचित)
जिस प्रकार एक नौकरी करने वाला व्यक्ति अपने मालिक के अनुसार कार्य करके उसे प्रसन्न करता है और तब उसको उसका पारिश्रमिक मिलता है ! उसी प्रकार मानव शरीर पाकर के ईश्वर के अनुरूप कार्य करके उसे प्रसन्न करने के बाद ही *भगवत्कृपा* की प्राप्ति का अनुभव किया जा सकता है !