अर्जुन पर *भगवत्कृपा* हुई और भगवान ने अर्जुन से कहा:- हे पार्थ ! तुम मेरे सैकड़ों हजारों नाना प्रकार के नाना वर्ण और आकृति वाले अलौकिक रूपों को देखो ! *यह अर्जुन पर विशिष्ट भगवत्कृपा का एक प्रमुख उदाहरण है !* भगवान ने अपनी ओर से अपना विराट रूप तो प्रकट कर दिया परंतु अर्जुन उसे देख ही नहीं पाए *श्रीमद्भगवद्गीता में ५ बार भगवान ने अर्जुन के लिए पश्य शब्द का प्रयोग किया है !* बार-बार भगवान कहते हैं अर्जुन मेरे रूप को देखो परंतु अर्जुन विराट रूप को देख ही नहीं पाए उन्हें असमर्थ जानकर भगवान ने उन पर *विशेष भगवत्कृपा* की और कहा कि :- *दिव्यं ददामि ते चक्षु:* अर्थात:- मैं तुम्हें दिव्यचक्षु (अन्तर्चक्षु) प्रदान कर रहा हूँ ! और भगवान ने अर्जुन को दिव्य चक्षुओं का दान दिया !
*गर्भ में परीक्षित के प्राण बचायो नाथ ,*
*ध्रुव को दियो ध्रुवलोक लासानी है !*
*भक्त प्रहलाद हित रूप विचित्र धारेउ ,*
*खम्भ फारि आयेव जगविदित कहानी है !!*
*सदन कसाई तारेउ गनिका उधारेउ नाथ ,*
*शबरी के कन्दमूल खायेउ बखानी है !*
*"अर्जुन" पसारे हाथ दया कीन्हेउ दीनानाथ ,*
*दिव्य चक्षु दान दीन्हेउ नाथ वरदानी है !!*
(स्वरचित)
दिव्य चक्षु प्राप्त करके अर्जुन ने भगवान के विराट स्वरूप का दर्शन किया परंतु वह रूप देखने के बाद अर्जुन भय से भयभीत हो गए और भगवान से प्रार्थना करने लगे कि :- हे भगवन ! मुझे तो फिर वही चतुर्भुज रूप दिखाइए ! मैं अत्यंत भयभीत हो रहा हूं मुझ पर प्रसन्न हो जाइए ! तब भगवान ने कहा :-
*मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं ,*
*रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् !*
*तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं ,*
*यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् !!*
भगवान कहते हैं :- अर्जुन ! मैं तुम पर प्रसन्न ही हूं ! प्रसन्न होकर ही योग शक्ति के प्रभाव से अपना यह परम तेजोमय और सीमा रहित विराट रूप तुम को दिखाया है ! जो कि तुम्हारे पहले किसी के द्वारा भी नहीं देखा गया है ! अर्जुन को एक शंका और थी उसका निवारण भी भगवान ने इस विराट रूप के माध्यम से किया अर्जुन की शंका थी कि :--
*यद्वा जयेम् यदि वा नो जयेयु:*
*अर्थात :-* इस युद्ध में हम जीतेंगे कि वह (कौरव) जीतेंगे ! *विशेष भगवत्कृपा* करके अर्जुन को भगवान ने दिखा दिया कि विकराल दाँतो वाले एवं अग्नि के समान प्रचलित उनके मुख में धृतराष्ट्र के पुत्र , भीष्म , द्रोण आदि सभी समा रहे हैं ! इस प्रकार जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए थे उन्हें भी मृत दिखाकर भगवान ने अर्जुन को *कृपा पूर्वक* आसन्न भविष्य का दर्शन करा दिया , सावधान कर दिया कि तुम जो युद्ध नहीं करने को कहते हो एवं गुरुजनों की मृत्यु से डर रहे हो वह सब तो मरने वाले ही हैं चाहे तुम युद्ध करो या ना करो ! इसके बाद भगवान अर्जुन से क्षत्रिय धर्म पालन करने के लिए करते हैं:--
*तस्मात्त्वमुतिष्ठ यशो लभस्व ,*
*जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् !*
यहां भगवान का आशय यही है कि मनुष्य को सदैव अपने कर्तव्य पालन में तत्पर रहना चाहिए फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए ! भगवान ने भी जब देखा कि अर्जुन मेरे विराट रूप को देखकर डर गए हैं और अब अधिक समय तक मेरी इस तेज को सहन नहीं कर सकेगे तब कृपालु होकर अपने प्यारे सखा के अनुरोध पर पुनः चतुर्भुज रूप को प्राप्त हो गए , और मुस्कुराते हुए बोले कि:- हे अर्जुन ! तुम डरो मत ! मोह को न प्राप्त हो ! मेरे चतुर्भुज रूप को फिर देखो ! अर्जुन चतुर्भुज रूप को देखकर आश्वस्त हुए तो भगवान ने अपनी *विशिष्ट कृपा* उद्घाटित की और कहा :- हे अर्जुन मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है ! वेद , दान , तप , यज्ञ आदि से नहीं देखा जा सकता ! यह तो *विशेष भगवत्कृपा* या अनन्य भक्ति से ही देखा जा सकता है !