*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास तो करना चाहिए परंतु यह भी सत्य है कि इस संसार में *भगवत्कृपा* निरंतर है इसके बिना पता तक नहीं हिलता ! देवता , दानव , मानव , यक्ष , किन्नर , गंधर्व जो भी कार्य करते हैं सब *भगवत्कृपा* से ही करते है ! जब तक *भगवतकृपा* का बल नहीं प्राप्त होगा तब तक देवता भी बलहीन हो जाते हैं मनुष्य की तो बात ही क्या किया जाय :---
*प्रभु के बल से सब होत बली ,*
*ब्रह्माण्ड में वे बलवान कहावें !*
*दानव मानव अरु देव सभी ,*
*प्रभुकृपा से ही सुख सम्पत्ति पावैं !!*
*भगवन्त कृपा सब भूलि गये ,*
*अपनो बल जानि के मान बढ़ावैं !*
*"अर्जुन" जब कृपा की कोर हटी ,*
*अति दीन मलीन कुलीन दिखावैं !!*
(स्वरचित)
*भगवत्कृपा* बड़ी रहस्यमयी है ! इसके रहस्य का उद्घाटन *केनोपनिषद* में यक्ष की कथा के माध्यम से दर्शाया गया है ! परमात्मा की ही शक्ति से शक्तिमान अग्नि , वायु तथा इंद्र जी भी उस समय शक्ति से रहित हो जाते हैं जब अहंकार के वशीभूत होकर यह अपने आप को ही सर्वसमर्थ मान लेते हैं ! परमात्मा की *कृपाशक्ति* से ही सभी अनुप्राणित है ! यह निर्विवाद है :--
*ते$ग्निमव्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमेतद् यक्षमिति तथैति !! तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्को$सीत्यग्निर्वा अहमस्मीत्यव्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति !! तस्मिगुंगस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदगुंग सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति !! तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति !! तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते ! नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति !!*
(केनोपनिषद)
*अर्थात:-* एक प्रसंग के माध्यम से *भगवत्कृपा* के बल को जानने का प्रयास करते हैं ! *देवताओं ने अग्नि से कहा :-* हे अग्ने ! इस यक्ष का पता तो लगाओ कि यह कौन है ? बहुत अच्छा कहकर अग्नि उसके पास गए ! *यक्ष ने पूछा:-* तुम कौन हो ? और तुम्हारे में क्या बल है ? *अग्नि ने कहा :-* कि मैं अग्नि अपर नाम जातवेदस हूं ! जगत में जो कुछ भी पदार्थ है मैं उसे जला सकता हूं ! *यक्ष ने उन्हें एक तिनका दिया और कहा :-* इसे जलाओ ! अग्नि संपूर्ण वेग से उस पर दौड़े पर जला ना सके , *वह वहां से लौट आए और बोले* मैं उस यक्ष को जान ना सका !
*अथ वायुमब्रुवन्यायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ! तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्को$सीति वायुर्वा अहमस्मीत्यव्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति !! तस्मिगुंगस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदगुंग सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति !! तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति !! तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकदातुं स तत एव निववृते ! नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति !!*
(केनोपनिषद)
तत्पश्चात देवताओं ने *वायु को* यक्ष का पता लगाने के लिए भेजा ! वायु यक्ष के पास गए ! *यक्ष ने पूछा:-* तुम कौन हो ? और तुम में कितना बल है ? *वायु ने कहा:-* मैं पृथ्वी की कोई भी वस्तु उड़ा सकता हूं ! *मेरा नाम मातरिश्वा है !* यक्ष ने उन्हें वही तिनका उड़ाने को दिया , पर वह ना तो उस तिनके को हिला सके और ना ही उड़ा सके ! और वहां से वापस लौट आए तथा देवताओं से बोले मैं भी यक्ष को नहीं जान सका ! *उस यक्ष को जानने के लिए इंद्र गये* पर वह तब तक अंतर्ध्यान हो चुका था और उसकी जगह पर उन्हें हिमालय की पुत्री उमादेवी मिलीं ! *उन्होंने कहा :-* आप लोगों में जो शक्ति है वह ब्रह्म की है ! ब्रह्म की विजय में अपनी विजय समझो अर्थात *भगवान जब इन देवताओं से अपनी शक्ति खींच लिया करते हैं तब यह देवता भी निस्तेज हो जाया करते हैं !* सूर्य एवं चंद्रादि भगवान की कितनी अमोघ शक्ति लिए हैं पर प्रलय काल में यही शक्तियां कुछ नहीं कर सकती ! यह जो वृक्ष पर्बत आदि आकाश में ठहरे हुए हैं जब तक उनमें *भगवत्कृपा* है , भगवान की शक्ति है तब तक वह सुरक्षित हैं उन्हें कोई भी नहीं गिरा सकता पर भगवान की शक्ति उनसे हटती ही मकान , वृक्ष , पहाड़ आदि अनायास ही गिर पड़ते हैं ! महाभारत युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को रथ से उतर जाने को कहा उतरते ही वह जल गया ! जो भीष्म आद् के अस्त्रों से पहले ही दग्ध हो चुका था वह *भगवत्कृपा* से ही अब तक सुरक्षित था ! भगवान के रथ से उतरते ही वह वक्त भी *भगवत्कृपा बिहीन* होकर जल उठा ! जब तक *भगवत कृपा* की शक्ति जीवों में होती है तब तक वह अनेकों प्रकार के क्रियाकलाप करता है ! *भगवत्कृपा* की शक्ति अंतर्हित होते ही जीव कुछ भी करने के योग्य नहीं बचता ! यही *भगवत्कृपा* की महती शक्ति का रहस्य है !