*भगवत्कृपा* निसंदेह सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , स्वाधीन ,परम प्रेमास्पद एवं परम कृपालु *परमेश्वर की कृपा* एवं उनका ही एक सहज स्वभाव है जो कभी किसी निमित्त के बिना ही भागवत आनंद का तरल से तरल पावन प्रवाह बनकर जगत का सतत कल्याण करता है ! इस पावन प्रवाह में स्वयं उन्हीं के सौंदर्य ,औदार्य , सौशील्य एवं माधुर्य आदि गुणों की सुरभि तथा शीतलता मिश्रित रहती है , जिसे पाकर अर्थात जिसका अनुभव करके जगत के प्राणी मात्र कृतार्थ हो जाते हैं ! *भगवत्कृपा* के अनेकों स्वरूप देख कर के प्रायः मनुष्य के मस्तिष्क में एक प्रश्न उठता है कि *क्या दुख सुख आदि की अवस्था में भी भगवत्कृपा हितकारिणी होती है ? यदि होती है तो इसका प्रमाण क्या है ?* इसके उत्तर में इतना ही कहना है कि इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए कि *भगवत्कृपा* का परिणाम अथवा फल सर्वदा सुखद एवं आकर्षक ही होता है ! अतः *प्रभु की कृपा* का एक रूप *आकर्षिणी* भी है किंतु वह प्रारंभ में *विकर्षिणी* का रूप धारण करके ही आती है ! यह *विकर्षिणी* भी अपना सहज सौरभ तभी प्रकट करती है जब वह हृदय में प्रपंच- संवेदन के प्रति *तापनी* बन चुकती है ! कहने का आशय यह है कि *जब ईश्वर वियोगिनी वृत्ति प्रपंच संयोग में ताप और ज्वाला का अनुभव करने लगती है* संसार की सुरभि में दुर्गंध की , रस में विष , सौंदर्य में कुरूपता , सुकुमार में मारककत्व , मधुर स्वर में नीरस एवं कर्णभेदी गड़गड़ाहट , प्रिय संबंध में बंधन , समता में विषमता तथा आत्मत्व परत्व की दारुण प्रतीत करने लगती है , तब यह *तापनी* जीव का संसार से *विकर्षण* कर उसे प्रभु की और *आकर्षण धारा* में डाल देती है ! *उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मेरा भी कोई प्रेमी है , मैं अकेला और असहाय नहीं हूं , कोई मेरी ओर आलंबन का वरद हस्त बढ़ा रहा है , वह मुझे अपनी और बलपूर्वक खींच रहा है , वही मेरा वास्तविक प्रियतम है जो मुझ जैसे इस संसार परित्यक्त को भी अपना रहा है !* उसी के पास मेरा वास्तविक निवास है ! अब तक तो मैं घोर अंधकार में , भ्रम में , पराए घर में भटक रहा था , दयनीय जीवन काट रहा था , भ्रमवश दुख को सुख मान बैठा था ! मैं जहां हूं वहां तो प्रकाश , शांति और सुख में से एक भी नहीं है ! मुझे अपने प्रियतम के उस रसमय / मधुमय प्रदेश में चले जाना चाहिए जहां सतत् सुख शांति एवं प्रकाश स्वरूप केवल वही वह नित्य विहार करता है ! मानव की उक्त प्रकार की अनुभूति ही इस तथ्य में प्रमाण है कि दुख सुख आदि की अवस्था में भी *भगवत्कृपा* हितकारिणी ही होती है !