*भगवतकृपा* प्राप्त करने के लिए लोग अनेक प्रकार के विधान करते हैं , अनुष्ठान करवाते हैं , घंटों बैठकर जप किया करते हैं , भगवान नाम का स्मरण उच्चारण एवं कीर्तन किया करते हैं , परंतु उसे ऐसा लगता है कि यह सब करने के बाद भी भगवान उस से प्रसन्न नहीं होते हैं और उस पर *भगवत्कृपा* नहीं होती है मैं तो कहता हूं कि *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए अन्य कोई साधन करने की आवश्यकता ही नहीं है *यदि सेवा एवं पूजा ही करनी है तो अपने माता पिता की जाय* क्योंकि जो मनुष्य अपनी सेवा के द्वारा अपने माता पिता को प्रसन्न कर लेता है उस पर भगवान प्रसन्न होकर अपनी *अमोघा कृपा सुधा रसका अभिवर्षण करते हैं !* उसके समस्त क्लेश सदा के लिए मिट जाते हैं , वह अनिर्वचनीय आनंद परमशांति एवं *भगवत्कृपा* का अनुभव करके कृतकृत्य हो जाता है ! *माता-पिता का तिरस्कार करके अनेकों जप - अनुष्ठान करने के बाद भी मनुष्य को भगवत्कृपा का अनुभव नहीं हो सकता* क्योंकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है :--
*पिता धर्म: पिता स्वर्ग: पिता हि परम तप: !*
*पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता: !!*
*सर्व तीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता !*
*मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन् पूजयेत् !!*
*मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम् !*
*प्रदक्षिणीकृता तेन सप्त दीपा वसुंधरा !!*
( पद्म पुराण / सृष्टि खंड /४७/९ , ११ , १२)
*अर्थात:-* (पुत्र के लिए) पिता ही धर्म है , पिता ही स्वर्ग आदि है ! अतः जिस पुत्र की माता पिता में (उनकी सेवा पूजा में) प्रीति हो जाती है उसके ऊपर समस्त देवगण प्रसन्न हो जाते हैं !माता संपूर्ण तीर्थमयी है और पिता समस्त देवमय है इसलिए पुत्र को तन मन से माता पिता की सेवा पूजा करनी चाहिए ! जो माता-पिता की परिक्रमा कर लेता है उसे निश्चय ही संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करने का फल मिल जाता है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि बड़े-बड़े मंदिरों में जाकर के महन्थों के चरणों का चरणोदक लिया जाय ! हम बाहर घूम कर महापुरुषों के चरणोंदक का पान करते रहे और घर में बैठे हुए माता पिता हमारे द्वारा तिरस्कृत हो जायं तो *भगवत्कृपा* कदापि नहीं प्राप्त हो सकती ! क्योंकि कहा गया है :--
*पित्रोरनर्चनं कृत्वा भुंक्ते यस्तु सुताधम: !*
*कृमिकूपे$थ नरके कल्पांतमपि तिष्ठति !!*
*रोगिणं चापि वृद्धं च पितपं वृत्तकर्शितम् !*
*विफलं नेत्रकर्णाभ्यां त्यक्त्वा गच्छेञ्च रौरवम् !!*
*नाराध्य पितरौ पुत्रस्तीर्थदेवान् भजन्नपि !*
*तयोर्न फलमाप्नोति कीटवद्भ्रमते महीम् !!*
(पद्मपुराण/सृ०ख० /४७/१८-१९-२१)
*अर्थात:-* जो पुत्र जन्मदाता माता पिता की सेवा पूजा किए बिना ही स्वयं भोजन आदि कार्य संपन्न करता है वह अधर्म निश्चय ही कल्पपर्यंत कृमि - कूप नर्क में निवास करता है ! जो पुत्र रोग ग्रस्त , वृद्धावस्थापन्न , नेत्र - कर्ण शक्ति रहित अथवा धन-संपत्ति के अभाव से दुखित माता-पिता का परित्याग करता है वह मरने के बाद रौरव नरक को प्राप्त होता है ! जो पुत्र आराधनीय माता-पिता की आराधना नहीं करता वह तीर्थ सेवन और देवार्चन करता हुआ भी उनके फलों को प्राप्त नहीं होता अपितु पृथ्वी पर कीट पतंगवत जीवन व्यतीत करता है ! ऐसे लोगों को *भगवत्कृपा* का अनुभव कदापि नहीं हो सकता है ! घर में जीवित देवता (माता पिता) को छोड़कर के *भगवत्कृपा* प्राप्त करने की इच्छा से तीर्थों का भ्रमण करने वाले इन कुपुत्रों को इसका फल तो मिलता नहीं है साथ ही माता-पिता के तिरस्कार स्वरूप उनको अनेक कल्पों तक नर्क भी भोगना पड़ता है ! *माता-पिता की कृपा प्राप्त करके भगवत्कृपा को बड़ी सरलता से प्राप्त किया जा सकता है* अन्यथा *भगवत्कृपा* का अनुभव भी नहीं हो सकता | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को यही चाहिए कि यदि माता पिता हैं तो सबसे पहले अपने कृत्यों (सेवा) से उनको प्रसन्न करने का प्रयास करे ! यदि आपकी सेवा से माता पिता संतुष्ट एवं प्रसन्न हैं तो *भगवत्कृपा* तो अनायास ही प्राप्त होती रहेगी !