*सनातन धर्म पर विशेष भगवत्कृपा है* यह मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हू बल्कि सनातन ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर ही ऐसा कहा जा सकता है ! यत्र तत्र सर्वत्र सनातन धर्म के प्रत्येक धर्म ग्रंथ में *भगवत्कृपा* के दर्शन स्पष्ट होते हैं ! हमारे शास्त्रों में *भगवत्कृपा* की महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है :--
*स्थलन्नयनवारिभिर्विरचिताभिषेकश्रिये ,*
*त्वराभरतरंगत: कवलितात्मविस्फूर्तये !*
*निशातशरशायिना सुरसरित्सुतेन स्मृते: ,*
*सपद्यवशवर्ष्मणे भगवत: कृपायै नम: !!*
(हरिभक्ति रसामृतसिन्धु)
अनेक विषय पर लोगों में वाद विवाद हो जाता है और मनुष्य के हृदय में संशय उत्पन्न होता है ! किसी भी सत्य तथ्य के निर्णय में प्रमाणभूत वेद , पुराण एवं धर्म शास्त्र ही सबकी शरण , दर्पण या नेत्र हैं :--
*अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् !*
*सर्वस्य लोचनं शास्त्र ---------------------- !!*
(हितोपदेश प्रस्ताविका)
किसी भी निर्णय पर पहुंचने के लिए शास्त्रों का ही आश्चर्य लेना पड़ता है यही बात स्वयं भगवान कहते हैं :--
*तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते*
(गीता)
यह विशेष *भगवत्कृपा* सनातन धर्म में ही देखने को मिलती है ! जटिल शास्त्रीय गुत्थियों का निर्णय , तत्व निर्धारण भी उत्सर्गापवाद , सामान्य - विशेष , पूर्वोत्तर पक्ष , विविध प्रकार के गुणवाद , भूतार्थकादि वादों के ज्ञान एवं भ्रम - प्रमाद- विप्रलिप्सा , करणापाटव , पक्षपातशून्यता न्यायैक शरण्यता तथा *भगवत्कृपा* से ही हो पाता है ! अन्यथा :--
*वेदस्य चेश्वरात्मत्वात्तत्र मुह्यन्ति सूरय:*
(श्रीमद्भा०)
सनातन धर्म में वेद भगवान का ही स्वरूप हैं , उसमें बड़े - बड़े बुद्धिमान भी मोहित हो जाते हैं ! पद - पद पर व्यामोह की दुरन्तता भी सम्भव ही है ! फिर मंत्र , ब्राम्हण , अारण्यक ,उपनिषद् , श्रौत , स्मार्त , कल्प , धर्मसूत्र , निरुक्त , चतुर्लक्षणी एवं द्वादशलक्षणी मीमांसा युक्त वेद , इन के भाष्य एवं सभी वेदांगों का भी सम्यक ज्ञान अत्यंत दुष्कर है ! वस्तुतः इनका ठीक-ठीक ज्ञान तो केवल *भगवत्कृपा* से ही संभव है ! इनके दृष्ट्रा - रचयिता - यायावर , औदुम्बर , बालखिल्य , फेनप , सेकत ईश्वरैकप्राण ऋषि गण ही थे ! सनकादि , मार्कण्डेय , नारद , अत्रि , अंगिरा , पुलह , पुलस्त्य , वशिष्ठ , बाल्मीकि , व्यास , शुकदेव , गौतम , जैमिनि , पतञ्जलि ! पाणिनि , शंकर , रामानुज , मंडन मिश्र , वाचस्पति मिश्र , कालिदास आदि सभी विद्वतगण एवं स्वयंभू मनु , इंद्र , वरुण , कुबेर , सूर्य , चंद्र , गुरु , शुक्रादि देवचार्य , असुराचार्य , प्रह्लादादि दैन्य , विरक्ति एवं भक्तियुक्त तप से ही षड्ग्रंथिभेदनादि पूर्वक *भगवत्कृपा* एवं श्री भगवान का सानिध्य लाभ कर कृतार्थ हुए , तथा अभी भी *भगवत्कृपा* के लिए लालायित एवं सचेष्ट रहते हैं !
*जासु कृपा अज सिव सनकादी !*
*चहत सकल परमारथ बादी !!*
(मानस)
इस प्रकार यह वेद शास्त्र एवं सम्प्रज्ञात , असम्प्रज्ञात समाधिसिद्धि योगी - ऋषि - मनीषी गण भगवान को कृपामूर्ति कहकर पुकारते हैं ! जो भगवान दुष्टों के लिए काल हैं वही भक्तों के लिए कृपामूर्ति हैं ! यह देखकर ही तुलसीदास जी ने लिख दिया है :---
*है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु मूरति कृपामयी है*
कृपामूर्ति के दर्शन , उनका अनुभव *भगवत्कृपा* से ही संभव है और यह *भगवत्कृपा* विशेष रूप से सनातन धर्म में विद्यमान है ! आवश्यकता है इसको जानने , समझने एवं अनुभव करने की !